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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किया जा सकता है। संगीत से चार व्यक्तियों में गोष्ठीबन्ध होता है। वे मिलकर गाते हैं, तन्मयता अनुभव करते हैं। रणभेरी को सुनकर वीरों के भुजदंड फडक उठते थे, पर वही भेरी कायरों को भयाक्रान्त करती थी, -यह है संगीत-विद्या का सौन्दर्य। आचार्य पार्श्वदेव अपने 'संगीत-समयसार' में कहते हैं कि संगीत के स्वर-शास्त्र में सात स्वर माने गये हैं और उनमें प्रथम स्वर का नामकरण आदि-तीर्थंकर के नाम पर आधारित है, इसीलिए वहाँ सात स्वरों की गणना ऋषभ से की गई। जैसे युग के आदि में ऋषभ से पदार्थों के ज्ञान का वर्णन हुआ है, वैसे ही संगीत के स्वरों में ऋषभ को प्राथमिकता दी गयी। इसलिए जैन संगीत सप्तस्वरों में ऋषभ को पहला स्वर मानता है, क्योंकि ऋषभ स्वर की उत्पत्ति में वे ही मूल कारण हैं, जो तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता नाभि के रूप में दिखाई देते हैं। इसलिए ही उन्होंने कहा कि नाभि से समुदित जो वायु है, वह वायु कण्ठ तथा शीर्ष भाग से समाहत होता है और जब समाहत होता है, तब ऋषभ स्वर की उत्पत्ति होती है। यह इतिहास-प्रसिद्ध तथ्य भी है कि ऋषभदेव की उत्पत्ति आदि-मनु नाभि से हुई थी। यथा "नाभेस्समुदितः वायुः कण्ठशीर्षसमाहतः। ऋषभं विनदेद् यस्मात्तस्माद् ऋषभ ईरितः।।" ____नादोत्पत्ति का प्रतिपादन करते हुए आचार्य पार्श्वदेव कहते हैं कि स्वर, गीत, वाद्य और ताल इन चारों की उत्पत्ति नाद के बिना नहीं हो सकती, इसप्रकार सम्पूर्ण जगत् वस्तुत: नादात्मक है और इसीलिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर इन तीनों ही देवों को नादात्मक माना गया है। नाद के उत्पन्न होने की विधि यह है कि नाभि में ब्रह्म-स्थान है, नाद ब्रह्म-स्थान में वास करता है, जिसे ब्रह्म-ग्रन्थि भी कहा जाता है और उस ब्रह्म-ग्रन्थि के केन्द्र में प्राण स्थित हैं। उस केन्द्रस्थ प्राण से अग्नि की उत्पत्ति होती है, पर जब अग्नि और मरुत का संयोग हो जाता है, तब नाद उत्पन्न होता है। नाद के 'न' और 'द' ये दोनों अक्षर क्रमशः प्राण-मरुत और प्राणाग्नि के वाचक हैं। "नादोत्पत्तिः यथाशास्त्रमिदानीमभिधीयते। स्वरो गीतं च वाद्यं च तालश्चेति चतुष्टयम्।। न सिद्धयति बिना नादं तस्मान्नादात्मकं जगत् । नादात्मानस्त्रयो देवा ब्रह्मा-विष्णुमहेश्वराः।। नाभौ यद् ब्रह्मणः स्थानं ब्रह्मग्रन्थिश्च यो मतः। प्राणस्तन्मध्यवर्तोस्यादग्नेः प्राणात् समुद्भवः।। अग्निमारुतयोर्योगाद्भवेन्नादस्य सम्भवः। नकारः प्राण इत्युक्तो दकारो वह्निरुच्यते।। अर्थोऽयं नादशब्दस्य संक्षेपात् परिकीर्तितः। स च पंचविधो नादो मतंग-मुनिसम्मतः।। आचार्य पार्श्वदेव तो यह भी कहते हैं कि नाद के पाँच भेद हैं, (मुझे लगता है कि कि ये पाँच भेद ही पंचाक्षरी ओंकार की ओर संकेत करते हों) ये भेद हैं- अतिसूक्ष्म, 708 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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