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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सबसे ऊपरी भाग में जिन-आकृति ध्यान-मुद्रा में (पूर्वाभिमुख) विराजमान होती है। सभी दिशाओं के श्रोता जिन का दर्शन कर सकें, इस उद्देश्य से व्यन्तर देवों ने अन्य तीन दिशाओं में भी उसी जिन की तीन भव्य प्रतिमाएँ स्थापित की। यह उल्लेख सर्वप्रथम आठवीं-नौवीं शती ई. के जैन ग्रन्थों में आया है। प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में चार दिशाओं में चार जिनों की अलग-अलग मूर्तियों के निरूपण का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में कुषाणकालीन जिन चौमुखी मूर्ति में चार अलग-अलग जिनों के उत्कीर्णन को समवसरण की मूल अवधारणा से प्रभावित और उसमें हुए विकास का सूचक कतई नहीं माना जा सकता है। आठवीं-नौवीं शती ई. के ग्रन्थों में भी समवसरण में किसी एक ही जिन के होने तथा उसी जिन की तीन मूर्तियों के स्थापित किये जाने का उल्लेख मिलता है, जबकि कुषाणकालीन चौमुखी में चार अलग-अलग जिनों का निरूपण अभीष्ट था। सर्वप्रथम लगभग नौवीं शती ई. से ही चौमुखी मूर्ति में समवसरण की धारणा के अनुरूप एक ही जिन की चार मूर्तियाँ बननी प्रारम्भ हुईं (चित्र सं. 6)। मथुरा की 1023 ई. की चौमुखी मूर्ति के लेख में उल्लेख है कि यह महावीर की जिन-चौमुखी है। समवसरण में जिन सदैव ध्यान-मुद्रा में आसीन होते हैं, जबकि कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों में जिन सदैव कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं। इस प्रकार जहाँ हमें समकालीन जैन ग्रन्थों में चौमुखी मूर्ति की कल्पना का निश्चित आधार नहीं प्राप्त होता है, वहीं तत्कालीन एवं पूर्ववर्ती शिल्प में ऐसे एक मुख और बहुमुखी शिवलिंग एवं यक्षमूर्तियाँ प्राप्त होती हैं, जिनसे जिन चौमुखी की धारणा के प्रभावित रहे होने की सम्भावना हो सकती है। जिन चौमुखी पर स्वस्तिक और मौर्य शासक अशोक के सारनाथ सिंह-शीर्ष-स्तम्भ का भी प्रभाव असम्भव नहीं है । चार अलग-अलग जिनों (ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर) का अंकन करने वाली कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों को संयुक्त या संघात मूर्तियों की कोटि में भी रखा जा सकता है। ज्ञातव्य है कि वैदिक-पौराणिक परम्परा में भी कुषाण काल में ही अर्धनारीश्वर मूर्ति के रूप में संयुक्त मूर्तियों का उकेरन प्रारम्भ हुआ। ___ लगभग 10वीं शती ई. में चतुर्विंशति जिन-पट्टों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। 11वीं शती ई. का एक विशिष्ट चतुर्विंशति जिन-पट्ट देवगढ़ के साहू जैन संग्रहालय में है। इसमें जिनों के साथ अष्टप्रातिहार्यों, लांछनों एवं यक्ष-यक्षी का अंकन हुआ है। भवगतीसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, अन्तगड्दसाओ एवं पउमचरिय जैसे प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में यक्ष-यक्षी के प्रचुर उल्लेख हैं। इनमें माणिभद्र, पूर्णभद्र और बहुपुत्रिका यक्षी की सर्वाधिक चर्चा है। जिनों से संश्लिष्ट प्राचीनतम यक्ष-यक्षी सर्वानुभूति (या कुबेर) और अम्बिका की अवधारणा प्राचीन परम्परा के माणिभद्र-पूर्णभद्र यक्षों और बहुपुत्रिका यक्षी से प्रभावित हैं, जो क्रमशः धन-समृद्धि के देवता कुबेर और मातृदेवी की पूर्व परम्परा से सम्बन्धित है। लगभग छठी-सातवीं शती ई. में जिनों के शासन और उपासक मूर्तिकला :: 695 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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