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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चमकदार आलेप काल-निर्धारण में सहायक है। लोहानीपुर से शुंगकाल या कुछ बाद की एक अन्य जिनमूर्ति भी मिली है, जिसमें नीचे लटकती दोनों भुजाएँ भी सुरक्षित हैं। जैन परम्परा के अनुसार जैनधर्म को लगभग सभी समर्थ मौर्य शासकों का समर्थन प्राप्त था। चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्मानुयायी होना तथा जीवन के अन्तिम वर्षों में भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत जाना सुविदित है। अशोक ने भी निर्ग्रन्थों एवं आजीविकों को दान दिये थे। सम्प्रति को भी जैनधर्म का अनुयायी कहा गया है।' उदयगिरि (पुरी, उड़ीसा) स्थित हाथीगुम्फा के पहली शती ई. पूर्व के खारवेल के लेख में भी कलिंग जिन (-प्रतिमा) का उल्लेख आया है। लेख में उल्लेख है कि कलिंग की जिस जिन(-प्रतिमा) को नन्दराज तिवससत वर्ष पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः वापस ले आया। 'तिवससत' शब्द का अर्थ अधिकांश विद्वान 300 वर्ष मानते हैं। अतः खारवेल के लेख के आधार पर भी जिनमूर्ति की प्राचीनता चौथी शती ई.पू. तक आती है। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाण मौर्यकाल में निश्चित रूप से जैनधर्म में मूर्ति निर्माण एवं पूजन की विद्यमानता की सूचना देते हैं। लोहानीपुर की जिनमूर्ति को भारतीय परम्परा में आराध्य देवों की प्राचीनतम मूर्ति होने का भी गौरव प्राप्त है। ____ मौर्यकाल में जिनमूर्ति-निर्माण की जो परम्परा प्रारम्भ हुई, उसका आगे की शताब्दियों में पल्लवन और पुष्पन हुआ। लगभग पहली शती ई. पूर्व की कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़ी पार्श्वनाथ की दो निर्वस्त्र कांस्य मूर्तियाँ मिली हैं। प्रथम उदाहरण (निश्चित प्राप्ति स्थल ज्ञात नहीं है) छत्रपति शिवाजी संग्रहालय, मुम्बई में हैं। चौसा (भोजपुर, बिहार) से प्राप्त दूसरा उदाहरण पटना संग्रहालय में सुरक्षित है।" इन मूर्तियों में पार्श्वनाथ के सिर पर सर्पफणों (पाँच या सात) के छत्र हैं। मथुरा से लगभग दूसरी पहली शती ई.पू. से जैन आयागपटों (पूजा शिलापट्ट) के उदाहरण मिले हैं। आयागपट उस संक्रमण काल की शिल्प-सामग्री है, जब उपास्यदेवों का पूजन प्रतीक और मान व रूप में साथ मूर्तिकला :: 689 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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