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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्मइंसणतुंबं दुवालसंगारयं जिणिं दाणं। वयणेमियं जगे जयदि धम्मचक्कं तवोधारं॥ भगवती आराधना, 7/1865 जैनशासन में धर्मचक्र के विविध रूप मिलते हैं। शास्त्रों में धर्मचक्र के इन रूपों का स्पष्ट वर्णन मिलता है। शिवकोटि आचार्य की 'भगवती आराधना' में बारह आरे वाले धर्मचक्र की चर्चा मिलती है। ये बारह आरे जिनवाणी के द्वादशांग के प्रतीक हैं। चौबीस आरे वाला धर्मचक्र चौबीस तीर्थंकरों का प्रतीक है। षोडश आरे वाला धर्मचक्र भी प्राचीन प्रतिमाओं के साथ मिलता है। षोडश कारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है। महाकवि असग ने 'वर्द्धमानचरित' में सूर्य की भाँति भास्वर सहस्त्र किरणों वाले धर्मचक्र का वर्णन किया है, जो तीर्थंकरों के आगे-आगे चलता है। इनके अतिरिक्त प्राचीन कलाकृतियों में जिनबिम्बों के ऊपर तथा चरणों में भी धर्मचक्र मिलते हैं, जिनकी पूजा करते हुए श्रावकगण दिखाए गये हैं। हमने चौबीस तीर्थंकरों के प्रतीक 24 आरे वाले धर्मचक्र को स्वीकार किया है। चक्र के बीचों-बीच में जो ॐ लिखा हआ है वह पंच-परमेष्ठी का प्रतीक है। प्रतीक के नीचे जो प्राकृत भाषा में अथवा संस्कृत भाषा में क्रमशः 'अण्णोण उवयारेण जीवा' अथवा 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' वाक्य दिया है, इसका तात्पर्य है जीवों पर परस्पर उपकार करना। प्रतीक में जैनदर्शन का यह सूत्र युग-युग से सम्पूर्ण जगत को शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है। प्रतीक जिस सुन्दर ढंग से बन पड़ा है, उससे समूचे जैन शासन की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। यह प्रतीक अनादिकालीन तीनलोक के आकार का बोध कराता हुआ कहता है कि चतुर्गति में भ्रमण करती हुई आत्मा अहिंसा धर्म को अपनाकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सचमुच में यह प्रतीक हमें संसार से ऊपर उठकर मोक्ष के प्रति प्रयत्नशील होने का मार्गदर्शन करता है। - जैन ध्वज एवं जैन प्रतीक का विकास भगवान् महावीर स्वामी के 2500वें निर्वाण महोत्सव के समय जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों के प्रमुख लोगों की उपस्थिति में हुआ। श्रीवत्स- जैनधर्म एवं कला में श्रीवत्स का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैनधर्म में श्रीवत्स को मांगलिक चिह्न के साथ महापुरुषों के लांछन के रूप में भी मान्यता दी गयी है। श्रीवत्स पुण्यात्माओं का शारीरिक लक्षण है। तीर्थंकरों के वक्षस्थल पर रहने वाला चिह्न है, उनके वात्सल्य का द्योतक है। जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं में प्रायः सभी मूर्तियों में श्रीवत्स का अंकन चर्तुदलीय पुष्प चतुष्कोणिक विभिन्न आकार में उत्कीर्ण किए जाते हैं, विभिन्नता प्रतीक दर्शन :: 673 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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