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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिव्यध्वनि : कम्प्यूटर विज्ञान प्रो. वृषभ प्रसाद जैन भगवज्जिनेन्द्र को जब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, तदनन्तर समवसरण में उनके सर्वांग से एक विचित्र गर्जना रूप ऊँकारमय ध्वनि खिरती है, जिसे दिव्यध्वनि कहा जाता है। यद्यपि यह मान्यता बहुत साफ नहीं है, तथापि हरिवंशपुराण में (3/16-38) दिव्यध्वनि को प्रातिहार्यो में तथा सर्वमागधी भाषा को देवकृत अतिशयों में गिना गया है, जबकि तिलोयपण्णत्ति में यह उल्लेख मिलता है कि अठारह महाभाषाओं तथा सात सौ क्षुद्र भाषाओं से युक्त दिव्यध्वनि केवलज्ञान के ग्यारह अतिशयों में से एक है (ति.प. 4/ 899-906), जो भी हो, यहाँ यह प्रश्न विवेच्य नहीं है कि दिव्यध्वनि प्रातिहार्यों का अंग है अथवा केवलज्ञान के अतिशयों का?... अथवा केवलज्ञान होने पर होने वाले देवकृत अतिशयों का?... पर इस बिन्दु पर सभी आचार्य एक-मत हैं कि अर्हन्त भगवान के उपदेश देने की सभा समवसरण के परकोटे में सभी आगम्यमान यथा- तिर्यंच, मनुष्य व देव आदि जीव निश्चित प्रकोष्ठ में ही भगवज्जिनेन्द्र की अमृतवाणी से कर्णो को तृप्त करने के लिए बैठते हैं और वहाँ बैठकर सभी अपनी-अपनी भाषा में परिणम्यमान वाणी में अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान भी श्री गणधर देव के माध्यम से पाते हैं और सब की समष्टि रूप में एक-जैसी ही, पर वस्तुतः प्रत्येक की अलग-अलग यह अनुभूति होती है कि भगवज्जिनेन्द्र हमारी भाषा में हम को ही लक्ष्य कर कह रहे हैं। यहाँ महत्त्वपूर्ण यह है कि यह सब को कहने के माध्यम श्री गणधर देव ही बनते हैं (परोवदेसेण बिना अक्खरणक्खरसरुवासेसभासम् तर कुसलो समवसरणजणमेत्तरूवधारित्तणेण अम्हम्हाणम् भाषाहि अम्हम्हाणं चेव कहदि ति सव्वेसिं पच्च उप्पायओ समवसरणजणसोदिदिएसु सगमुहविणिग्गयाणेय भासाणं संकरेण पवेसस्स विणवारओ गणहरदेवो गंथकत्तारो - धवला 9/4, 1, 44/128/6)। इस बिन्दु पर भी जैन परम्परा के सभी आचार्य एक-मत हैं कि केवलज्ञान से अलंकृत भगवत् जिनेन्द्र निखिल ब्रह्माण्ड के ज्ञान के निधान हैं, इसीलिए तो कोई भी भव्य जीव अपनी किसी भी शंका का निराकरण/समाधान समवसरण में पाता है। कम्प्यूटर के विकास के मूल में वैज्ञानिकों का प्रारम्भ से लेकर निरन्तर यह दिव्यध्वनि : कम्प्यूटर विज्ञान :: 665 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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