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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इष्टिकाद्वार, ग्रहारम्भ, ग्रहप्रवेश, जलाशय, उल्कापात एवं ग्रहों के उदयास्त का फल आदि अनेक बातों का वर्णन रहता है। जैन आचार्यों ने संहिता ग्रन्थों में प्रतिमा निर्माण विधि एवं प्रतिष्ठा आदि का भी विधान लिखा है। यन्त्र, तन्त्र, मन्त्र आदि का विधान भी इस शास्त्र में है। फलित विषय के विस्तार में अष्टांग-निमित्त-ज्ञान भी शामिल है और प्रधानतः यही निमित्त-ज्ञानसंहिता विषय के अन्दर आता है। जैन दृष्टि में संहिता ग्रन्थों में अष्टांग निमित्त के साथ आयुर्वेद को भी स्थान दिया है। अष्टांगनिमित्त- जिन लक्षणों को देखकर भूत और भविष्यत् में घटित हुई और होने वाली घटनाओं का निरूपण किया जाता है, उन्हें निमित्त कहते हैं। न्यायशास्त्र में दो प्रकार के निमित्त माने गये हैं- कारक और सूचक। 'कारक' वह निमित्त है, जो किसी वस्तु को सम्पन्न करने में सहायक होते हैं। जैसे घड़े के लिए कुम्हार निमित्त है और पट के लिए जुलाहा। जुलाहे और कुम्हार की सहायता के बिना पट और घट रूप कार्यों का बनना सम्भव नहीं हैं। दूसरे प्रकार का निमित्त 'सूचक' है। इनसे किसी वस्तु या कार्य की सूचना मिलती है, जैसे सिग्नल की बत्ती हरी हो जाने या झुक जाने से गाड़ी आने की सूचना । जैन ज्योतिषशास्त्र में सूचकनिमित्त की विशेषताओं पर विचार किया गया है। ___ संहिताशास्त्र मानता है कि प्रत्येक घटना के घटित होने से पहले प्रकृति में विकार उत्पन्न होता है। इन प्राकृतिक विकारों की पहचान से व्यक्ति भावी शुभ-अशुभ घटनाओं को सरलतापूर्वक जान सकता है। ग्रह नक्षत्रादि की गतिविधि का भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालीन क्रियाओं के साथ कार्य-कारण का भाव-सम्बन्ध स्थापित किया गया है। इन अव्यभिचरित कार्यकारण भाव से भूत, भविष्यत् की घटनाओं का अनुमान किया है और इस अनुमान ज्ञान को अव्यभिचारी माना है। न्यायशास्त्र भी मानता है कि सुपरीक्षित अव्यभिचारी कार्य-कारण भाव से ज्ञात घटनाएँ निर्दोष होती हैं। उत्पादक सामग्री के सदोष होने से ही अनुमान सदोष होता है। अनुमान की अव्यभिचारिता सुपरीक्षित निर्दोष उत्पादक सामग्री पर निर्भर है। ___ अतः ग्रह या अन्य प्राकृतिक कारण किसी व्यक्ति का इष्ट-अनिष्ट सम्पादन नहीं करते, बल्कि इष्ट या अनिष्ट रूप में घटित होने वाली भावी घटनाओं की सूचना देते हैं। संक्षेप में यह कर्म-फल के अभिव्यंजक हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि आठ कर्म तथा मोहनीय के दर्शन और चारित्रमोह भेदों के कारण कर्मों के प्रधान नौ भेद जैनागम में बताये गये हैं। प्रधान नौ ग्रह इन्हीं कर्मों के फलों की सूचना देते हैं। 658 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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