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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्त ऋषभ आम्रः सुवर्ण वर्धमानः - श्वेतैरण्डः पाठे की लता वीतरागः ऋषभा आमलक यह कोष अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वर्द्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री को इसकी हस्तप्रति बैंगलोर में वैद्य पं. यल्लप्पा शास्त्री के पास देखने को मिली थी। अमृतनन्दी कन्नड़ प्रान्त के निवासी थे। इनका कन्नड़ में 'अलंकारसंग्रह' या 'अलंकारसार' नामक ग्रन्थ भी मिलता है। इसकी रचना मन्व राजा के आग्रह से इस संग्रहात्मक ग्रन्थ के रूप में की गयी थी। मन्व भूपति का काल 1299 ई. (संवत् 1355) के लगभग माना जाता है। अतः अमृतनन्दि का काल 13वीं शती प्रमाणित होता है। मंगराज या मंगरस प्रथम (1360 ई.) _ 'विजयनगर' के हिन्दू साम्राज्य के आरम्भिक काल में 'राजा हरिहरराय' के समय में मंगराज प्रथम' नामक कन्नडी जैन कवि ने वि.सं. 1416 (1360 ई.) में 'खगेन्द्रमणिदर्पण नामक वैद्यकग्रन्थ की रचना की थी। यह कन्नड़ी (कर्नाटक भाषा) में बहुत विस्तृत ग्रन्थ है। यह विष-चिकित्सा सम्बन्धी उत्तम ग्रन्थ है। इसमें स्थावरविषों की क्रिया और उनकी चिकित्सा का वर्णन है। ग्रन्थ में लेखक ने अपने को 'पूज्यपाद' का शिष्य बताया है और लिखा है-स्थावरविषों सम्बन्धी यह सामग्री उसने 'पूज्यपादीय' ग्रन्थ से संगृहीत की है। ___ मंगराज का ही नाम 'मंगरस' था। इसने अपने को होयसल राज्य के अन्तर्गत मुगुलिपुर का राजा और पूज्यपाद का शिष्य बताया है। इसकी पत्नी का नाम कामलता था और इसकी तीन सन्तानें थीं। यह कन्नड़ साहित्य के चम्पूयुग का महत्त्वपूर्ण कवि था। ___ इसने विजयनगर के राजा हरिहर की प्रशंसा की है, अत: मंगराज उसका समकालीन था। इसकी 'सुललित-कवि-पिकवसंत', विभुवंशललाम' आदि अनेक उपाधियाँ हैं। मंगराज ने लिखा है कि जनता के निवेदन पर उसने सर्वजनोपयोगी इस वैद्यकग्रन्थ की रचना की है। इसमें औषधियों के साथ मन्त्र-तन्त्र भी दिये हैं। ग्रन्थकार लिखता है-औषधियों से आरोग्य, आरोग्य से देह, देह से ज्ञान, ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है। अतः मैं औषधि शास्त्र का वर्णन करता हूँ। इस ग्रन्थ में स्थावर और जंगम दोनों प्रकार के विषों की चिकित्सा बतलाई गयी है। ___ यह ग्रन्थ शास्त्रीय शैली में लिखा गया है, अतः इसमें काव्यचमत्कार भी विद्यमान है। इसकी शैली ललित और सुन्दर है। इसका प्रकाशन मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास के द्वारा कन्नड़ सीरीज के अन्तर्गत सन् 1942 में किया गया है। 646 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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