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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6 आवश्यक – समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग। 7 शेषगुण – अस्नान, भूमिशयन, वस्त्रत्याग, केशलुंचन, दिन में एक बार अल्प भोजन ग्रहण, अदन्त धोवन और खड़े-खड़े आहार लेना। अर्हन्तादि उक्त पाँचों परमेष्ठियों का यही स्वरूप सर्वदा, सर्वत्र के लिए है। लक्षण तो स्थायी होते हैं, चाहे काल परिवर्तित हो या क्षेत्र की भिन्नता हो। विश्व में आत्माराधना से उत्पन्न सुख प्राप्त करने वाले जीव सदैव इन्हीं लक्षणों सहित होते हैं। उक्त परमेष्ठी ही मंगल, उत्तम एवं शरणभूत हैं। मंगल अर्थात् जो मोह-राग-द्वेष रूपी पापों को गलावे और सच्चा सुख उत्पन्न करे, वह ही मंगल है। उत्तम अर्थात् जो लोक में सबसे महान हों, वे ही उत्तम हैं। और शरण अर्थात् सहारा। तात्पर्य यह है कि हमें इन्हीं की शरण में जाना चाहिए। इन मंगल, उत्तम, शरण का प्रसिद्ध पाठ निम्न है चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। ___चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वग्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। अर्थात् लोक में चार मंगल हैं-अर्हन्त भगवान मंगल हैं, सिद्धभगवान मंगल हैं, साधु महाराज मंगल हैं और केवली भगवान द्वारा बताया गया वीतराग धर्म मंगल है। लोक में चार उत्तम हैं। अर्हन्त भगवान उत्तम हैं, सिद्ध भगवान उत्तम हैं, साधु महाराज उत्तम हैं और केवली भगवान द्वारा बताया गया वीतराग धर्म उत्तम है। मैं चारों की शरण में जाता हूँ। अर्हन्त भगवान की शरण में जाता हूँ, सिद्ध भगवान की शरण में जाता हूँ, साधु महाराज की शरण में जाता हूँ और केवली भगवान द्वारा बताए गये वीतरागी धर्म की शरण में जाता हूँ। उक्त पंचपरमेष्ठी की पूज्यता और अर्हन्त, सिद्ध, साधु व धर्म की मंगलमयता, उत्तमता और शरणभूतपना एक ही बात है। ___ यद्यपि मंगल, उत्तम व शरण में आचार्य व उपाध्याय परमेष्ठी का नाम नहीं है मात्र साधु महाराज का उल्लेख है तथा इन के अतिरिक्त केवली प्रणीत धर्म का नाम विशेष रूप से समाहित किया गया है, तथापि आचार्य व उपाध्याय परमेष्ठी भी मुनिराज (साधु) ही हैं, अतएव वे तो पूज्यता में सम्मिलित हैं ही। निर्विकल्प दशा में सभी मंगलोत्तमशरण रूप हैं। समाधि अंगीकार करने के लिए आचार्य, उपाध्याय पद से मुक्त होकर सामान्य साधुपने मात्र से ही सफलता होती है। 58 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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