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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गया है, जो छन्द: कोश के अभाव की पूर्ति करता है । अतः इस ग्रन्थ के अध्ययन से कवियों का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थ छन्दसिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि और अर्थसिद्धि नामक चार प्रतानों में विभक्त है । पुनः प्रत्येक के उपविभाग किये गये हैं, जो स्तवक कहलाते हैं । प्रत्येक प्रतान में क्रमश: 5,4,5, और 7 स्तवक हैं, जिनकी कुल संख्या 21 है । विनयचन्द्रसूरि विभिन्न कालों में विनयचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं । किन्तु प्रस्तुत स्थल में जिन आचार्य का कथन किया जा रहा है, वे काव्यशिक्षा के रचयिता आचार्य विनयचन्द्रसूरि हैं। ये चन्द्रगच्छीय आचार्य और रविप्रभसूरि के शिष्य थे। ये संस्कृत और प्राकृत के विद्वान् थे तथा काव्यशास्त्र उनका प्रिय विषय था | काव्यशिक्षा के अध्ययन से ज्ञात होता है कि विनयचन्द्रसूरि न केवल अलंकारशास्त्र के ही ज्ञाता थे, अपितु व्याकरण, कोश आदि पर भी उनका समान अधिकार था । डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी ने उनका साहित्यिक काल सं. 1286 से लेकर सं. 1345 तक स्वीकार किया है । डॉ. हरिप्रसाद शास्त्री ने काव्यशिक्षा और मल्लिस्वामी (नाथ) चरित इन दो को ही आचार्य विनयचन्द्रसूरि की रचनाएँ स्वीकृत की हैं, जो 'विनय शब्दांकित' हैं 130 किन्तु इनके अतिरिक्त पार्श्वनाथचरित और कालिकाचार्यकथा (प्राकृत) भी उनकी रचनाएँ प्रतीत होती हैं, क्योंकि पार्श्वनाथचरित 'विनय शब्दांकित' महाकाव्य है । 1 अतः यह कृति भी उक्त लेखक की होनी चाहिए तथा कालिकाचार्यकथा (प्राकृत) की रचना सं. 1286 में हुई है। 2 यह काल काव्यशिक्षाकार विनयचन्द्रसूरि का है । अतः यह कृति भी उक्त कवि की होगी, इसमें सन्देह नहीं । इस प्रकार विनयचन्द्रसूरि की चार कृतियाँ तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हैं- काव्यशिक्षा, मल्लिस्वामीचरित, पार्श्वनाथचरित और कालिकाचार्यकथा ( प्राकृत) । इनके अतिरिक्त जब तक कोई पुष्ट आधार नहीं मिल जाते हैं, तब तक अन्य कृतियों अथवा अन्य काल से आचार्य विनयचन्द्रसूरि का सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं है । काव्यशिक्षा : प्रस्तुत रचना आचार्य विनयचन्द्रसूरि की संगृहीत कृति है । इसमें कवि ने काव्यरचना हेतु कवि के लिए आवश्यक व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी है। ग्रन्थकार का दावा हो अथवा नहीं, किन्तु निष्पक्ष समालोचक की दृष्टि से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि संस्कृत का सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी प्रस्तुत ग्रन्थ की सहायता से पद्य रचना कर सकता है। इसके अध्ययन से कई ऐतिहासिक एवं भौगोलिक तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है। इसीलिए डॉ. भोगीलाल सांडेसरा ने लिखा है। आलंकारिक और अलंकारशास्त्र :: 611 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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