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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधोलोक (नरकों) का कथन / उल्लेख इसमें नहीं है। सौर्य परिवार समन्वित आकाश - गंगा तथा ब्रह्मांड तक ही आज के विज्ञान का 'यूनिवर्स' विस्तृत है, जिसका परिपूर्ण परिचय इन वैज्ञानिकों को नहीं है; क्योंकि आधुनिक विज्ञान भौतिकवादी और प्रयोग पक्षी होने से प्रयोग करके ही किसी तथ्य का निर्धारण करता है । ऊर्ध्वलोक- अधोलोक (स्वर्ग-नरक) प्रयोगसिद्ध तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष न होने से विज्ञान इन्हें नहीं मानता। इनके भौतिक साधनों में इस असीम लोकालोक को देखने-जानने-समझने की सामर्थ्य ही नहीं है। आज के विज्ञान ने आज तक जो भी खोजा है, जाना है, वह तो सीमित बुद्धि और इन्द्रिय-जन्य व क्षायोपशमिक ज्ञान का ही प्रति फल है। सीमित इन्द्रियजन्य-ज्ञान से कतिपय तथ्यों का ही बोध हो पाता है, सम्पूर्ण का नहीं । आधुनिक भूगोल के सारे तथ्य सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं, जबकि जैनभूगोल के सभी तथ्य केवली - प्रत्यक्ष हैं। वैसे भी यन्त्रों से प्राप्त जानकारी की अपेक्षा योगियों की दृष्टि अधिक विस्तृत और विश्वसनीय होती है । निरीक्षण, परीक्षण, विश्लेषण करके आज के वैज्ञानिकों ने जो भूगोल - खगोल सम्बन्धी तथ्य संगृहीत किए हैं, वे अनुमान पर भी आधारित हैं । अतः विवादित भी हैं। आधुनिक भूगोल के तथ्य सीमित हैं, जबकि जैनभूगोल का क्षेत्र और विषय बहुत व्यापक, विस्तृत, हृदयाकर्षक और विस्मयकारी है। जैनभूगोल के मापक आवली, पल्य, सागर, राजू, जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर आदि भी आधुनिक मापकों से भिन्न हैं, अद्भुत और आश्चर्यकारी भी हैं । हमारी भाव - भासना के विषय हैं। जैनभूगोल की आधुनिक भूगोल से संगति क्यों नहीं ? - आधुनिक भूगोल के अध्येताओं को जैनभूगोल असंगत और विस्मयकारी इसलिए लगता है, क्योंकि आधुनिक भूगोल में अनवस्थित/ अशाश्वत भूगोल के तथ्य वर्णित हैं, जो सतत परिवर्तनशील रहे हैं। जैन साहित्य में अवस्थित / शाश्वत भूगोल का वर्णन है, जो केवली / सर्वज्ञ - प्रज्ञप्त है, जिसमें कल्पों का शतवृत्त समाहित है । अवस्थित / शाश्वत क्षेत्र - जहाँ षट्काल-परिवर्तन नहीं होता, सदा एक-सी वर्तना होती है, वे अवस्थित क्षेत्र हैं । ऊर्ध्वलोक- अधोलोक अवस्थित क्षेत्र हैं। मध्यलोक में भी भोगभूमि, कुभोगभूमि एवं कर्मभूमि के म्लेच्छ खंडों में भी षट्काल-परिवर्तन नहीं होता । अतः ये भी अवस्थित / शाश्वत भूमियाँ हैं । इन सब का विवेचन जैनभूगोल में पाया जाता है, जो आधुनिक भूगोल में नहीं है । अनवस्थित/ अशाश्वत क्षेत्र - भरत और ऐरावत के 5-5 आर्यखंडों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह-छह काल-परिवर्तन होते हैं। तदनुसार हानि-वृद्धि और परिवर्तन होते रहते हैं । अतः ये क्षेत्र अनवस्थित हैं । अवसर्पिणी के अन्त में संवर्तक वायु और 49 दिवसीय कुवृष्टियों से इन आर्यखंडों में प्रलय के फलस्वरूप पृथ्वी एक योजन नीचे तक चूर-चूर हो जाती है तथा उत्सर्पिणी के प्राररम्भ में 49 दिवसीय सुवृष्टियों से इन आर्यखंडों का काया कल्प हो जाता है । इन आर्यखंडों का धरातल योजन- भर भूगोल : 551 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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