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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पटल में एक-एक ही होते हैं। इन्द्रक विमान की चारों दिशाओं में पंक्तिरूप से स्थित विमान ' श्रेणीबद्ध' विमान कहलाते हैं। विदिशाओं में फूलों की तरह अक्रम से बिखरे विमान 'प्रकीर्णक' विमान कहे जाते हैं। इन-सब में वैमानिक देव रहते हैं। कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च। 4/17, त. सूत्र-वैमानिक देवों के दो भेद हैं-(1) कल्पोपपन्न और (2) कल्पातीत। जहाँ इन्द्र, सामानिक आदि 10 प्रकार के भेदों की कल्पना है, ऐसे 16 स्वर्गों के देव 'कल्पोपपन्न' कहे जाते हैं। जिनमें इन्द्र आदि की कल्पना नहीं की जाती, ऐसे 16 स्वर्गों से ऊपर के सभी देव 'कल्पातीत' कहे जाते हैं। 9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश और 5 अनुत्तर विमानों के देव 'कल्पातीत' हैं। इनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं है। सभी समान/एक-जैसे हैं, अहमिन्द्र हैं। ___ उपर्युपरि 4/18, त. सूत्र–विमानवासियों के स्वर्ग ऊपर-ऊपर हैं, ज्योतिषी विमानों की तरह तिरछे नहीं हैं तथा व्यन्तरों के आवासों-जैसे अनियमित भी नहीं हैं। यद्यपि स्वर्गों के बीच में असंख्यात करोड़ योजनों का अन्तर है, व्यवधान है, फिर भी दो के बीच में अन्य कोई सजातीय स्वर्ग नहीं है, अतः समीपता के कारण 'ऊपर-ऊपर' कहा गया है। सौधर्म-ईशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण-अच्युत-इन आठ युगलों में कल्पवासी देव रहते हैं। इनके ऊपर 9 ग्रैवेयक, 9 अनुदिश, 5 अनुत्तर विमानों में कल्पातीत देव रहते हैं। सभी स्वर्गों में कुल 63 पटल हैं। भूतल से 99040 योजन ऊपर सुमेरुपर्वत की चूलिका से एक बाल के अन्तर से सौधर्म स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋतुविमान पहला इन्द्रक विमान है। स्वर्गों के अन्तिम 63वें पटल का इन्द्रक विमान सर्वार्थसिद्धि है। दोनों के बीच 61 पटल और हैं। ईषत्प्राग्भार पृथ्वी और सिद्धशिला- सर्वार्थसिद्धि के ध्वजदंड से बारह योजन ऊपर 'ईषत्प्राग्भार' नामकी आठवीं पृथ्वी है। इसके ठीक मध्य में चाँदी-जैसी सफेद छत्राकार 'सिद्धशिला' है। यह मध्य में आठ योजन मोटी है; फिर क्रमशः घटती हुई दोनों छोरों पर एक-प्रदेश-मात्र रह गयी है। यह सीधे रखे कटोरे के समान या उत्तान धवल छत्र के समान है। इसी को सिद्धक्षेत्र या सिद्धालय कहते हैं। इस सिद्धालय के उपरिम भाग तनुवातवलय में अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं। इस सिद्धालय का व्यास मनुष्यलोक के बराबर 45 लाख योजन है।132 __ पाँच पैतल्ला और तीन लखूरे-(1) प्राग्भारभूमि (सिद्धशिला), (2) मनुष्यलोक, (3) प्रथम स्वर्ग का ऋतुविमान, (4) प्रथम नरक का सीमन्तक इन्द्रक बिल, तथा (5) सिद्धालय- ये पाँचों विस्तार की अपेक्षा 45-45 लाख योजन विस्तृत हैं। यही 'पाँच पैतल्ला' कहलाते हैं। (1) सर्वार्थ सिद्धि, (2) जम्बूद्वीप और सातवें नरक भूगोल :: 547 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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