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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पश्चिम www. kobatirth.org रुचकगिरि - 13वें रुचकवर द्वीप के मध्य में वलयाकार रूप से अवस्थित स्वर्णमय रुचकगिरि है। इसकी ऊँचाई नीचे भू-व्यास तथा ऊपर मुख - व्यास 84-84 हजार योजन है । इस पर चारों दिशाओं में पंक्ति रूप से 8-8 कूट हैं। इन कूटों के भीतरी भाग में तीन-तीन कूट और हैं। इस प्रकार कुल 44 कूट हैं। इनमें सबसे भीतरी एक - एक कूट पर जिनभवन हैं। शेष सभी 40 कूटों पर अपने-अपने कार्यों में दक्ष देवियाँ रहती हैं। 8×4=32 कूटों पर स्थित 32 दिक्कुमारियाँ तीर्थंकरों के जन्मकल्याणकों में तीर्थंकर माता की सविनय सेवा करती हैं । यहाँ भी कूटों की संख्या एवं अवस्थिति में मत - भिन्नता है 1100 उत्तर रुचकगिरि ww दक्षिण नन्दीश्वर द्वीप - यह आठवाँ द्वीप है । यह एक सौ त्रेसठ करोड़ चौरासी लाख (1638400000) योजन विस्तृत है। इसकी प्रत्येक दिशा के मध्य भाग में 84 हजार योजन लम्बा-चौड़ा और ऊँचा कृष्ण-वर्ण अंजन - गिरि है। इस पर्वत की चारों दिशाओं में एक-एक लाख योजन लम्बी-चौड़ी (चौकोर ) टंकोत्कीर्ण ऊपर-नीचे एक जैसी, रत्नमय तटों वाली, एक हजार योजन गहरी, स्वच्छ जल से लबालब भरीं, जलचर जीवों से रहित चार-चार बावड़ियाँ हैं। इनके मध्य में दस-दस हजार योजन लम्बे-चौड़े श्वेतवर्ण दधिमुख पर्वत हैं। इन बावड़ियों के दो-दो बाहरी कोनों पर एक-एक हजार योजन लम्बे चौड़े और ऊँचे तपाये हुए सोने-जैसे लालवर्ण रति-कर पर्वत हैं। अंजन - गिरि, दधिमुख और रति-कर- ये सभी खड़े ढोल के समान गोलाकार हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर द्वीप.. For Private And Personal Use Only भूगोल :: 535
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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