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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किए गये। दिगम्बर-सम्प्रदाय में तारण पंथ अथवा समैया-सम्प्रदाय की संस्थापना तारण स्वामी (1448-1515 ई.) ने की थी। इस सम्प्रदाय द्वारा मन्दिरों और मूर्तियों के स्थान पर शास्त्र की पूजा का विधान किया गया। इस का व्यापक प्रभाव मध्य प्रदेश में रहा। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी गुजरात में लौकाशाह (1420-1476 ई.) ने लौंकागच्छ की स्थापना की, जो आगे चलकर स्थानकवासी सम्प्रदाय के रूप में प्रचलित हुआ। स्थानकवासी साधु मुख-पट्टी का उपयोग करते हैं और मन्दिरों एवं मूर्तियों का विरोध करते हैं। आगे चलकर इन्हीं में से भिक्खुगणी ने तेरापंथ की स्थापना की। 20वीं शताब्दी में तेरापंथ के विशेष प्रभावक आचार्य तुलसी थे। ___20वीं शती में ही दिगम्बर सम्प्रदाय में श्री कानजी स्वामी ने कानजी शुद्धपन्थ की स्थापना की। इसका विशेष आग्रह शुद्ध अध्यात्मवाद पर रहा। ___ 19वीं-20वीं शती में ब्रिटिश शासन-काल में जैन समाज में भी जागृति की आवश्यकता अनुभूत हुई। जैनधर्म, साहित्य और कला के प्रति अभिरुचि जाग्रत करने के प्रयत्न किए गये और उसके लिए शोध-संस्थाओं और साहित्य के प्रकाशन की व्यवस्था की गयी। समाज में प्रचलित रूढ़ियों के परिमार्जन के लिए भी सुधारवादी प्रयत्न किए गये। सम्प्रदाय और पंथ-भेद को भुलाकर सभी जैन धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाने के प्रयास भी किए गये। इस दृष्टि से (All India Jain Young Men's Association) (भारत जैन महामण्डल) का गठन भी 1912-13 में किया गया। ये प्रयत्न भी हुए कि जैन धर्मानुयायी विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति उल्लेखनीय रूप में प्रतिष्ठापित कर सकें। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद राजनीतिक परिदृश्य के सापेक्ष जैन धर्मानुयायियों के लिए एक सर्वमान्य मंच का गठन किये जाने की आवश्यकता भी अनुभव की गयी। इस सम्बन्ध में कुछ प्रयत्न किये भी जाते रहे हैं, परन्तु व्यक्तिगत अहं के कारण इसका कोई सकारात्मक परिणाम सम्प्रति प्रकट नहीं हुआ है। वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि पंथवाद के मतभेदों से ऊपर उठकर संगठन का प्रयत्न किया जाये और तीर्थ आदि से सम्बन्धित विवादों को समझौते और समन्वय की भावना से निपटा लिया जाए। आचार आदि में भी वर्तमान परिस्थितियों के सापेक्ष आवश्यक परिमार्जन किया जाना अपेक्षित है। ताकि भगवान् महावीर द्वारा प्रवर्तित जैनधर्म के प्रति जैनेतर समुदाय में आदर, विनय और श्रद्धा का भाव बना ही रहे, बल्कि निरन्तर समृद्ध होता चले। 48 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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