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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5. पाँचवें नरक तक के नारकी देश-संयम और सकल-संयम ग्रहण कर सकते हैं। 6. छठी तक के नारकी निकलकर देश-संयम ग्रहण कर सकते हैं। 7. सातवीं पृथ्वी से निकले नारकी नियमतः मिथ्यादृष्टि तिर्यंच ही होते हैं और वे मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं। 8. नरक से निकले नारकी जीव नारायण, बलभद्र और चक्रवर्ती नहीं होते। 9. नरकों में नारकी अपनी संख्या के असंख्यातवें भाग प्रमाण प्रत्येक समय में उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते हैं। नरकों में उत्कृष्ट रूप से जन्म-मरण का अन्त - कोई भी यदि प्रथम आदि पृथ्वियों में जन्म-मरण न करे, तो अधिक से अधिक नीचे दर्शाये गये काल तक जन्ममरण नहीं करता-इसके बाद तो नियम से जन्ममरण होगा ही होगा, ऐसा नियम हैपहली में | दूसरी में | तीसरी में | चौथी में | पाँचवीं में | छठी में | सातवी में 24 मुहूर्त | सात दिनों | एक पक्ष | एक माह | दो माह | चार माह | छह माह ___ नरकों में सम्यक्त्व उत्पत्ति के कारण- प्रथम 3 नरकों में (1) जाति स्मरण, (2) दुर्वार वेदनानुभवन तथा (3) देवों द्वारा सम्बोधन इस प्रकार ये 3 सम्यक्त्व प्राप्ति के कारण हैं। शेष पंकप्रभा आदि 4 नरकों में (1) जाति स्मरण, और (2) वेदनानुभवन ये दो ही सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारण हैं। मध्यलोक लोक का मध्यभाग 'मध्यलोक' है। यह अधोलोक के ऊपर चित्रापृथ्वी पर एक राजू लम्बे चौड़े तथा एक लाख 40 योजन ऊँचे क्षेत्र में विस्तृत है। इसमें जम्बूद्वीप को आदि लेकर असंख्यात द्वीपों तथा लवणसमुद्र को आदि लेकर असंख्यात समुद्रों का विस्तार है। ___इनका विस्तार अपने पूर्ववर्ती द्वीप समूहों के विस्तार से दूना-दूना है और ये एकदूसरे को वलयाकार रूप से घेरे हुए हैं। सब द्वीप-समुद्रों के मध्य में एक लाख योजन विस्तृत थाली के आकार-जैसा गोलाकार जम्बूद्वीप है। इसे दो लाख योजन विस्तृत लवणसमुद्र वलयाकार रूप से घेरे हुए है। लवण समुद्र को चार लाख योजन विस्तृत धातकीखण्ड, धातकीखण्ड को 8 लाख योजन विस्तृत कालोदक समुद्र तथा कालोदक समुद्र को 16 लाख योजन विस्तृत पुष्करवर द्वीप चूड़ी के आकार में (वलयरूप में) घेरे हुए है। इस प्रकार अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीप और समुद्र एक दूसरे को परिवेष्टित किये हुए हैं। पुष्करवर द्वीप से लेकर आगे के सभी द्वीप-समुद्रों के नाम एक-जैसे हैं अर्थात् जिस नाम का द्वीप है, उसी नाम का समुद्र है। ये सभी शुभनाम वाले हैं तथा तिर्यक् रूप से मध्यलोक में फैले हुए हैं। अत: इसे 'तिर्यक्लोक' 520 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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