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एवं प्रतिष्ठापित स्वरूप है। उनके द्वारा उपदिष्ट श्रुतज्ञान इसकी पृष्ठभूमि और आधार हैं। उस ज्ञान को संरक्षित करने के बहुविधि प्रयास किये जाते रहे।
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् 62 वर्ष में 3 संघ-नायक क्रमशः इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मा और जम्बू हुए, जिनके सम्बन्ध में कोई मतान्तर नहीं है, परन्तु जम्बूस्वामी के पश्चात् मतान्तर प्रारम्भ हो जाता है। यद्यपि भद्रबाहु 8वें संघ-नायक के रूप में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य हैं, जम्बू के बाद दिगम्बर-परम्परा में नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित और गोवर्धन को मान्यता दी गयी है, परन्तु श्वेताम्बर
परम्परा में उनके स्थान पर प्रभव, स्वयंभव, यशोभद्र और सम्भूतविजय को मान्यता दी गयी है। इससे यह संकेत मिलता है कि जम्बूस्वामी के बाद ही मतभेद प्रारम्भ हो गये थे, तथापि भद्रबाहु को दोनों ही पक्षों ने संघ-नायक स्वीकार कर लिया था।
श्वेताम्बर परम्परा में भद्रबाहु के बाद स्थूलिभद्र का उल्लेख है। स्थूलिभद्र का उल्लेख दिगम्बर परम्परा में नहीं है। यह तथ्य इस बात को प्रतिभासित करता है कि भद्रबाहु के बाद स्पष्ट रूप से संघ का नायकत्व बँट गया था। भद्रबाहु के समय में मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा। इस दुर्भिक्ष के कारण बहुत से साधु जो आचार से बँधे थे, मगध से दक्षिण की ओर चले गये। कुछ साधु दुर्भिक्ष के क्षेत्र में रहे और उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार अपने आचार को समायोजित कर लिया। ये जैन साधु मूल दिगम्बर साधु चर्या से अलग हो गये और दुर्भिक्ष के बाद पश्चिम दिशा में उज्जैन
और मथुरा की ओर चले गये। मगध में दुर्भिक्ष की समाप्ति पर महावीर निर्वाण संवत् 160 (ई.पू. 367) में पाटलिपुत्र में श्रुत के संरक्षण के लिए एक सम्मेलन किया गया, जिसमें भद्रबाहु सम्मिलित नहीं हुए तथा अन्य कोई दिगम्बर साधु भी सम्मिलित नहीं हुए, और यह सम्मेलन निष्फल रहा। यह घटना इस बात को सूचित करती है कि जैन साधु-संघ में अब स्पष्ट मतभेद हो गया था, परन्तु संघ-भेद को स्पष्ट स्वीकृति नहीं मिली थी। श्वेताम्बर-परम्परा में 19वें पट्टधर वज्रसेन के समय में महावीर निर्वाण संवत् 603 (76 ईस्वी) में दिगम्बर-श्वेताम्बर संघ-भेद को अन्ततः मान्यता दी गयी। संघ-भेद के लिए महावीर नि.सं. 606 (79 ईस्वी) और म.नि.सं. 609 (82 ईस्वी) का भी उल्लेख मिलता है, परन्तु 603, 606 और 609 यह तीनों ही संवत् वज्रसेन के नायकत्व-काल में ही पड़ते हैं। अतः संघ-भेद को ईस्वी सन् 76 से माना जा सकता है। दिगम्बर-आम्नाय के मूल ग्रन्थ षटखण्डागम का प्रणयन महावीर निर्वाण संवत् 602 (75 ईस्वी) में माना जाता है। यह घटना भी इस तथ्य को सूचित करती प्रतीत होती है कि प्रथम शती ईस्वी के चतुर्थ चरण में महावीर द्वारा स्थापित जैनश्रमण-संघ में दिगम्बर और श्वेताम्बर साधुओं के रूप में संघ-भेद स्पष्ट हो गया था। ___ मान्यता यही है कि भगवान महावीर द्वारा जो संघ व्यवस्था की गयी थी, उसमें साधु निर्ग्रन्थ दिगम्बर थे। ईस्वी पूर्व तीसरी से पहली और ईस्वी सन् की प्रारम्भिक
46 :: जैनधर्म परिचय
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