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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अवधारणाओं में व्याप्त पुद्गल, भौतिक विज्ञान के पदार्थ के समतुल्य सदृश है और द्रव्य के माध्यम से लोक की निर्मिति की व्याख्या करता है। पुद् (फूसन ) तथा गल (फिसन) के अन्तः संयोग या विघटन से लोक की रचना का निरूपण द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव के सन्दर्भ में प्रवृत्त हुआ है। पुद्गल के रूप, गुण तथा पर्याय -आधारित तो होते ही हैं; वे स्थायी, भौतिक, अजीव, उर्जित, व्यापक तथा विस्तृत, दैहिक, मूर्त और परिवर्तनशील भी होते हैं और उनमें कर्म- - रूपान्तरण की भी क्षमता होती है । परमाणु अन्तिम एवं अत्यन्त सूक्ष्म तथा अविभाज्य कण होता है । द्रव्य की परिवर्तनशीलता की विवेचना आदि और अनादि परिणामों की गतिशीलता के साथ प्रस्तुत हुई है। आदि परिणाम रंग, गन्ध, स्वाद, स्पर्श, स्थान, संयोजन, गति, विभाजन, ध्वनि आदि के रूपान्तरण में अनुभूत होती है और अनादि परिणामों की अनुभूति द्रव्यत्व, मूर्तत्व और सत्व आदि में प्रकट होती है । द्रव्य की संख्या भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान कालखण्डों में अपरिवर्तनशील होती है एवं यह संस्थान, आकृति, उद्भव - उर्जित तथा क्षय आदि को प्राप्त करती है। पुद्गल विविध आकृतियों को धारण करने में सक्षम होता है और सकल उत्तमता के विविध स्वरूपों को अंगीकृत करने में सक्षम होता है। सूक्ष्म परमाणुओं की वृहत्तर दुनिया : जिन्दगी की निर्णायक कहानी : कर्म सिद्धान्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनधर्म में कर्म के सिद्धान्त पर जोर दिया गया है। जीवन में व्यक्ति अपने कर्मों का परिणाम भुगतता है। यह कर्म मोक्ष का भी हेतु होता है । मुक्ति 'त्रिरत्न' अर्थात् सम्यक् दर्शन या श्रद्धा (सही दृष्टि या विश्वास) सम्यक् ज्ञान, और सम्यक् चारित्र या आचरण (सही आचरण) के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। जैनधर्म में ऐसा माना जाता है कि संसार के प्राणी जो दुःख भोग रहे हैं, उसका कारण है उनका अपनाअपना कर्म । इस कर्म - बन्धन से मुक्त होना ही मोक्ष है। कर्म का जैन - सिद्धान्त में वह अर्थ नहीं है, जिसे कर्तव्य-कर्म कहा जाता है । 'कर्म' नाम के परमाणु होते हैं, जो आत्मा की तरफ निरन्तर खिंचते रहते हैं । इन्हें 'कार्मण वर्गणा' कहा जाता है। कर्म वह है, जो आत्मा का असली स्वभाव प्रकट न होने दे। उसे ढँक दे। जैनधर्म में कर्म - सिद्धान्त पर बहुत जोर दिया गया है। मूल कर्म आठ हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । उत्तर प्रकृतियाँ अनेक हैं । जैन कर्म - सिद्धान्त के अनुसार कर्म वर्गणाएँ भार - हीन होती हैं। कर्म-वर्गणाओं में गुरु और लघु स्पर्श का अभाव है। जैनों ने न केवल तारों की गति धर्म और विज्ञान :: 489 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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