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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दोनों ही आम्नायों के अनुसार जम्बूस्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था और महावीर के निर्वाण के 62 वर्ष बाद ईस्वी पूर्व 465 में मोक्ष प्राप्त हुआ। श्वेताम्बर आम्नाय में महावीर की द्वादशांग-वाणी को संकलित करने का श्रेय जम्बूस्वामी को दिया गया है। जम्बूस्वामि ने महावीर के उपदेशों का प्रत्यक्ष-बोध के आधार पर संकलन नहीं किया, वरन् उन्होंने कहा है कि "गुरु सुधर्मा स्वामी से गौतम के प्रश्नों का महावीर द्वारा दिया गया उत्तर, जैसा सुना।" श्वेताम्बर आम्नाय में महावीर द्वारा उपदिष्ट 12 अंगों में से प्रथम 11 अंग संरक्षित बताये जाते हैं, जिनका उपलब्ध रूप महावीर निर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद, अर्थात् 453 या 466 ई. के लगभग, वल्लभी में देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा संकलित किया गया। दिगम्बर आम्नाय इन 11 अंगों को मान्यता नहीं देती और इन्हें लुप्त मानती है, तथा केवल 12वें अंग के दृष्टि-प्रवाद-खण्ड को ही संरक्षित मानती है। श्वेताम्बर आम्नाय 12वें अंग को लुप्त मानती है। दोनों आम्नायों के अनुसार द्वादश अंगों के नाम प्रायः समान हैं, परन्तु उनकी पदसंख्या, श्लोक-संख्या और अक्षर-संख्या के सम्बन्ध में मतभेद है। इन अंगों के नाम निम्नलिखित हैं 1. आयारो (आचारांग)-इसमें श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार सम्बन्धी निर्देश है। 2. सुयगडो (सूत्रकृतांग)-इसमें स्वमत, परमत, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष आदि तत्त्वों का निरूपण है और महावीर के समय प्रचलित 363 पाखण्ड मतों पर विचार किया गया है। 3. ठाणं (स्थानांग)-इसमें स्व-समय, पर-समय, स्व-पर उभय समय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक, लोकालोक आदि पर विचार किया गया है। 4. समवाओ (समवायांग)-इसमें द्रव्य की अपेक्षा से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि के क्षेत्र, काल तथा भाव की दृष्टि से विवरण दिये गए हैं। वियाहपण्णत्ती (वियाह-पण्णत्ति, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, विपाक-प्रज्ञप्ति, विक्खापणत्ति)-यह प्रश्नोत्तर शैली में है। इसमें गौतम द्वारा किये गये प्रश्नों के उत्तर भगवान् देते हैं। प्रश्न विविध विषयक हैं। इसका दूसरा नाम भगवतीसूत्र (भगवई) भी है। 6. नायधम्मकहाओ (ज्ञातृधर्मकथा)-इसमें उदाहरण रूप से धर्म-कथाएँ दी गयी हैं। 7. उवसग्दसाओ (उपासकदशा)-इसमें दस उपासक गृहस्थों के सदाचार पूर्ण जीवन का वर्णन किया गया है। 8. अन्तगडदसाओ (अन्तकृत्दशा)-इसमें विभिन्न श्रेणी के साधकों का वर्णन है। इतिहास के प्रति जैन दृष्टि :: 43 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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