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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मान्यता के प्रति आज के चिन्तकों का विश्वास खण्डित होता जा रहा है कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने सभी प्राणियों के युगल निर्मित किये थे तथा परमात्मा ने ही मनुष्य को 'ईश्वरीय ज्ञान' प्रदान किया था। जीव के विकास की प्रक्रिया के सूत्र, धर्म की इस पौराणिक मान्यता में भी खोजे जा सकते हैं कि जीव चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य योनि धारण करता है। मानव के विकास के क्रम की मीमांसा, विकासवाद के परिप्रेक्ष्य में, इन धार्मिक अवधारणाओं के साथ भी सम्भव है। विज्ञान विश्व के मूल में पदार्थ एवं ऊर्जा को ही अधिष्ठित देखता आया है। विज्ञान को अपार्थिव चिन्मय-सत्ता का भी संस्पर्श करना होगा। भविष्य के विज्ञान को अपना यह आग्रह भी छोड़ना होगा कि जड़ पदार्थ से चेतना का आविर्भाव होता है। डार्विन के विकासवाद के इस सिद्धान्त को तो स्वीकार करना सम्भव है कि अवनत कोटि के जीव से उन्नत कोटि के जीव का विकास हुआ है। किन्तु उनका यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है कि अजीव से जीव का विकास हुआ। इस धारणा अथवा मान्यता का तार्किक कारण है। जिस वस्तु का जैसा उपादान-कारण होता है, वह उसी रूप में परिणत होता है। चेतन के उपादान अचेतन में नहीं बदल सकते। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते। न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए तथा अजीव जीव बन जाए। पदार्थ के रूपान्तरण से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है; मगर चेतन उत्पन्न नहीं किया जा सकता। चेतना का अध्ययन, अध्यात्म का विषय है। जानने की जुगत : सत्य का गहन दृष्टि-बोध जैन आध्यात्मिक विज्ञान में सत्य पर गहन चिन्तन किया गया है, क्योंकि सत्य में ही समस्त गुण-धर्म पर्याय हैं। अवस्थाएँ, क्रिया-प्रतिक्रिया, कर्म-कारण आदि सम्बन्ध सम्भव हैं- 'सद्दव्य लक्षणम्', द्रव्य का लक्षण सत् है। संसार शाश्वत है, क्योंकि इसके सभी द्रव्य शाश्वत हैं। आधुनिक विज्ञान में भी यह सिद्ध हो गया है कि कोई भी वस्तु या शक्ति नष्ट नहीं होती, बल्कि उसका रूप परिवर्तित होता है। द्रव्य सत्स्वरूप है। सत् स्वरूप होने के कारण ही द्रव्य अनादि से अनन्त काल तक रहेगा। द्रव्य के परिवर्तनशील होते हुए भी उसका नाश नहीं होता। सत्य दर्शन ने ही कई कठिन सवालों को सरल बनाया है। 'जानना' चेतना का व्यवच्छेदक गुण है। जीव चेतन है। अजीव अचेतन है। जीव का स्वभाव चैतन्य है। अजीव का स्वभाव जड़त्व अथवा अचैतन्य है। जो जानता है, वह जीवात्मा है। जो नहीं जानता, वह अनात्मा है। जीव आत्मा-सहित है। अजीव में आत्मा नहीं है। जीव सुख-दुःख की अनुभूति करता है। अजीव को सुख-दुःख धर्म और विज्ञान :: 475 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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