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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org महिमा दर्शन आदि सहयोगी होते हैं । राग - वीतराग के भेद से भी सम्यग्दर्शन द्विविध रूप से आगम में वर्णित है । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों से अभिव्यक्त राग अवस्था में होने वाला आत्म-श्रद्धान जिसमें अभी राग-द्वेष रूप चारित्रमोह का मन्द उदय निमित्त होने पर भी दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूप अविरति या देशविरति रूप मोक्षमार्ग प्रकट होता है, वह सराग सम्यग्दर्शन है । जहाँ रागादि विकृत परिणामों से रहित मात्र शुद्धोपयोग रूप परिणति ही होती है कि जिसमें श्रेणी आरोहणपूर्वक केवलज्ञान तक का उद्भव हो जाता है ? वह वीतराग सम्यग्दर्शन है। यह वीतराग चारित्र का अविनाभावी होता है 1 2. 3. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन के रूप में भी सम्यग्दर्शन दो भेद वाला कथित है— शुद्ध आत्म तत्त्व की यथार्थ प्रतीति रूप श्रद्धानभाव निश्चय सम्यग्दर्शन है और इसके सहयोगी स्व- पर भेदविज्ञान, तत्त्व श्रद्धान एवं आप्त-आगम- - तपोभृत (देवशास्त्र - गुरु) की यथार्थ श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सम्यक्त्व विरोधी कर्मों के उपशम, क्षयोपशम, क्षय की अपेक्षा सम्यग्दर्शन त्रिविध कहा गया है— अष्ट कर्म रचित जंजाल में दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति रूप तीन तथा चारित्र मोहनीय जन्य अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय चतुष्क के उपशमन पूर्वक उत्पन्न होने वाला निजानन्दी स्वलक्ष्य ही उपशम सम्यक्त्व कहलाता है। इस सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उक्त दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियाँ तथा चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क के सर्वथा क्षय से उत्पन्न मेरुवत् निष्कम्प, स्वसन्तुष्ट आत्मावलोकन ही क्षायिक सम्यग्दर्शन कहलाता है । यह सम्यक्त्व प्राप्ति उपरान्त चिर स्थायी होता है । इसकी उपलब्धि केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में ही सम्भवित होती है । इस मोहनीय कर्म की दर्शनमोह सम्बन्धी मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व तथा चारित्रमोह सम्बन्धी अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क रूप छह सर्वघाती प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय, इन्हीं प्रकृतियों का सदवस्था में उपशम रूप अवस्था तथा देशघाती वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है, वह क्षयोपशम सम्यग्दर्शन होता है । आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़, परमावगाढ़ रुचि के भेद से भी सम्यग्दर्शन के दश प्रकार विभक्त किए गये हैं 1. आज्ञा सम्यक्त्व - वीतराग जिनेन्द्र की आज्ञा मात्र के श्रद्धान से उद्भूत सम्यग्दर्शन । मार्ग सम्यक्त्व - मोक्षमार्ग को कल्याणकारी समझकर उस पर अचल श्रद्धान । उपदेश सम्यक्त्व - तिरेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान । ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 459 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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