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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धनि धन्य हैं वे जीव नर-भव पाय यह कारज किया। तिन ही अनादी भ्रमण पंच प्रकार तजि वर सुख लिया। 6/13 ॥ हम सभी भी महापुरुषों द्वारा कृत की अनुमोदना करते हुए स्वयं भी ऐसे विष- सम पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्त हो आनन्ददायी निज आत्मतत्त्व के अनुरागी हों समाधिभावना आधि, व्याधि एवं उपाधि से पार निजस्वरूप की समझ, पहचान एवं श्रद्धापूर्वक रमणता से उत्पन्न सहज समताभाव ही समाधि है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की सम्यक् श्रद्धा, जीवाअजीवादि सात तत्त्वों के यथार्थ अवबोध पूर्वक स्व-पर के सम्यक् भेदविज्ञान से उत्पन्न निजस्वरूप की प्रतीति विश्वास ही इस जीव को कषायादि विभावों से बचाने तथा सम्यक् समता भावों का रसास्वाद कराने में समर्थ है। ऐसी समता के बल से जीव आनन्दमय जीवन जीने की कला में पारंगत हो, संयोगवियोगों के स्वरूप को समझता हुआ, अविचलित परिणति में जीता हुआ, जीवन-मरणादि प्रसंगों का मात्र ज्ञाता रहकर मोहोत्पन्न आकुलताओं से बचता हुआ परिस्थितियों का साक्षी ही रहता है। देह वियोग के प्रसंग को इस साक्षीभाव से जानना ही समाधि है। ज्ञानी जीव मृत्युप्रसंग को आयु का अन्त देखता है, न कि जीव का अन्त, जीवन का अन्त । जीव का जीवत्व तो अनादि-अनन्त है। अत: निरन्तर आनन्दोत्पत्ति का प्रसंग बना रहता है। ऐसा जीव उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था, अशक्य-असाध्य रोगादि के प्रसंग उपस्थित होने पर ऐसी भावना भाता है कि -- "दिन-रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ। देहान्त के समय में, तुमको न भूल जाऊँ॥" मैंने जीवन-काल में अनेक प्रकार के सम्बन्ध जोड़कर अनेक शत्रु-मित्र बनाये हैं। पूर्वकालीन भूलों से तो शत्रु-मित्र का समागम मिला, किन्तु मैंने वर्तमान में नये शत्रु-मित्र बनाए हैं। निजस्वभाव की सम्पूर्ण सुखमयता को भूलकर पर पदार्थों के सम्बन्ध से अपने में पूर्णता का कामना करते हुए राग-द्वेषात्मक शत्रु-मित्रता के अनेक सम्बन्ध जोड़े। अब यह समस्त प्रकार के सम्बन्धों से विरक्ति का अवसर आया है, इसलिए उन सभी के प्रति हृदय में सहज सौम्य क्षमाभाव धरकर तथा उनसे क्षमाभाव धारण की प्रार्थना करके क्रोधमानादि कषायों से स्वयं को बचाने का भाव उग्रतर होता रहता है। इस देह के पोषण हेतु अब तक विविध प्रकार के व्यंजनों की व्यवस्था का भाव निरन्तर बनाये रखा, किन्तु यह देह तो निरन्तर जर्जरित होने के लिए ही है, ऐसा जानकर यथावसर आहार, दूध, छाछ, गरम 452 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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