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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीमारियों से घिरी रहती है, बल्कि इसका जितना शोषण, दोहन, मेहनत करो, उतनी स्वस्थ व अनुकूल रहती है। वास्तव में तो इस देह का स्वरूप ही दुर्जन जैसा है। इस देह से तो मूों की ही प्रीति होती है। यह देह तो मूों द्वारा ही प्रीतियोग्य है। ___यह देह रचने-पचने, पसन्द आने योग्य नहीं है, किन्तु विरक्ति सीखने योग्य है वैराग्य धारण करने योग्य है। जैसे काणे गन्ने को कोई चूसे तो दुःख व बीमारियाँ प्राप्त होती हैं, किन्तु यदि उसे भूमि में बो दिया जाए तो उत्तम फलदायी होता है। इसी प्रकार यह देह भी काणे गन्ने के सदृश बीमारियों का घर, दुःखदायी है, किन्तु यदि इस देह को पाकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक संयम के मार्ग में जोड़ दिया जाए, तो कर्म काटने का साधन भी यही देह बन जाए, और यही सारभूत है। और अब अन्त में विरक्ति का साधन भोग भी विचारणीय हैं भोक्ता द्वारा जो भोगे जाएँ ऐसे स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय भोग कहलाते हैं । जो पुण्योदय में प्राप्त हों वे अनुकूल तथा जो पापोदय में प्राप्त हों वे प्रतिकूल माने जाते शास्त्रों में भोगों को भोग और उपभोग-दो रूपों में व्याख्यायित किया है, वहीं भोगों को काम और भोग इन दो रूपों में भी बाँटा गया है। वहाँ प्रथम भोग और उपभोग रूप भोगों की चर्चा तो 'श्रावकाचार' आलेख में शिक्षाव्रतों की चर्चा करते हुए की ही गयी है, पुनरुक्ति भय से इसे संक्षेप में देखा जाये तो भोगने योग्य पदार्थ जो एक बार ही भोगे जाएँ वे भोग हैं तथा जो पुनः पुनः भोग्य हों वे उपभोग हैं। जैसे क्रमशः भोजन आदि भोग्य हैं तथा वस्त्र, आभूषणादि उपभोग्य हैं। __ आचार्य जयसेन स्वामी ने 'समयसार' ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति टीका में चौथी गाथा में कहा है कि स्पर्शन एवं रसना इन्द्रिय सम्बन्धी तीव्र आसक्ति भाव के जनक विषय काम हैं तथा घ्राण, चक्षु व कर्ण इन्द्रिय सम्बन्धी भोग-विषय भोग हैं। पुण्योदय से प्राप्त यह भोग-सामग्री जीव के आसक्ति भाव को बढ़ाने में ही सहयोगी होती रही है, विरक्ति भाव तो लगभग पापोदय में ही जाग्रत होता देखा गया है। तीर्थंकरादि महापुरुष भी गृहस्थदशा में प्राप्त पुण्योदय में तो भोगवृत्ति में ही लगे रहे हैं, उन्हें भी विरक्ति भाव तो पुण्योदय में बाधा पड़ने पर ही पैदा होता है, वृद्धिंगत होता है। आचार्य यतिवृषभ स्वामी तो 'तिलोयपण्णत्ति' में कहते हैं पुण्णेण होइ विहओ, विहवेण मओ मएण मइमोहो। मइमोहेण य पावं, तम्हा पुण्णोवि वज्जेज्जो ॥9/52 ॥ चूँकि पुण्य से विभव, विभव से मद, मद से मतिमोह और मतिमोह से पाप होता है, इसलिए पुण्य को भी छोड़ना चाहिए। ___ ऐसा कहकर आचार्य देव पुण्य की उपादेयता, पुण्य में धर्मबुद्धि छुड़ाना चाहते हैं, पुण्य नहीं। 450 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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