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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 पूर्व के ज्ञाता होने से 25 गुणधारक हैं। यद्यपि ये गुण अन्य आचार्य व साधुओं में हो सकते हैं, किन्तु उपाध्याय पद मात्र पढ़ाने से ही प्राप्त होता है। __यह द्वादशांग रूप सूत्रादि का ज्ञान है, वह तप के प्रभाव से उपजता है, अत: उपाध्याय बुद्धिप्रमाण शिष्यों को पढ़ाते हैं तथा श्रुत का अथवा ज्ञान का सदा ही दान करते हैं, उन गुरुओं की भक्ति करना सदा योग्य ही है तथा शास्त्र की भक्ति, वह भी बहुश्रुतभक्ति कही गई है, शास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना, अपने धन को शास्त्रों के मुद्रणादि में लगाना, यह भी इसी के अन्तर्गत आता है। इस प्रकार द्वादशांग रूप जिनवाणी तथा उसके धारक, ऐसे बहुश्रुती, उनकी मन-वचन-काय से स्तुति-भक्ति आदि करना, वह बहुश्रुतभक्ति भावना है। 13. प्रवचनभक्ति भावना-प्रवचन अर्थात् प्रकृष्ट वचन। जिनेन्द्र भगवान् के मुख से निकला हआ वचन ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है। जिसमें षड्द्रव्यादि का वर्णन आया है, ऐसे वीतराग सर्वज्ञ भगवान् के वचन जो स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले है, वे सब प्रवचन कहलाते हैं। जिस प्रकार अन्धकार युक्त महल में हाथ में दीपक लेने पर सभी पदार्थ देखे जा सकते हैं। उसी प्रकार तीनलोक रूपी महल में प्रवचन अर्थात् जिनेन्द्र की वाणी रूपी दीपक की सहायता से सूक्ष्म-स्थूल, मूर्तिक-अमूर्तिक पदार्थ देखे जा सकते हैं। वीतराग जिनेन्द्र भगवान् का ज्ञान अनन्त है तथा राग-द्वेष के अभाव से सर्व जीवों के लिए हितकारक तथा अज्ञानता के अभाव से सर्व पदार्थ यथार्थ रूप से जानते हैं, उनका उपदेश भी यथार्थ और हितकारक है, इसी कारण वह 'प्रवचन' संज्ञा को प्राप्त है। इसी प्रवचन में अनन्त भूत, अनन्त भविष्य व वर्तमान के समस्त द्रव्यों का उनके गुण व पर्यायों सहित वर्णन है। पुण्यपुरुषों के जीवन-चरित्र रूप प्रथमानुयोग, व्रतादि आचरण के वर्णन रूप चरणानुयोग, कर्म-प्रकृतियों के उदयादि के कथन रूप करणानुयोग तथा सप्ततत्त्वादि के स्वरूप का वर्णन करने रूप द्रव्यानुयोग आदि भी इसी में आते हैं। और इस संसार से उद्धार करने वाला सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र की एकता रूप मोक्षमार्ग का उल्लेख भी जिनेन्द्र भगवान् के परमागम में ही है। इस प्रकार अनन्तधर्मात्मक वस्तु का कथन करने वाले स्याद्वाद शैली में सुगठित जिनेन्द्र के परमामृत रूप प्रवचन के प्रति उत्कृष्ट विनय रखना, शास्त्राभ्यास में ही अपना चित्त लगाना, यही प्रवचन-भक्ति भावना है। अनेक प्रकार से जो द्रव्यश्रुत व भावश्रुत रूप प्रवचन हैं, उनका भक्ति से पाठ करना, श्रवण करना, व्याख्यान करना, वन्दनादि करना, सब प्रवचनभक्ति भावना में ही शामिल है। 14. आवश्यकापरिहाणि भावना-जो कार्य अवश्य करने योग्य होते हैं, उन्हें आवश्यक कहा जाता है। उस आवश्यक कार्य को प्रतिदिन करते रहना ही अहानि अर्थात् आवश्यकापरिहाणि कहलाता है। शास्त्रों में आवश्यक कार्य 6 बताये गए हैं। बाह्य वस्तुओं को अचेतन व स्वयं से भिन्न जानते हुए रागादि विकार से रहित स्वयं को शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा 444 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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