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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir को जीतने की भावना सहित, वस्त्रादि का त्याग कर, इन्द्रिय-विषयों में प्रवर्तन का त्याग कर निज स्वभाव की ओर उन्मुख हुए जीव की दशा है। इस अतिशय तप में तो आहारादि के लाभ-अलाभ में समता रखना, सरस-नीरस भोजन में लालसारहित सन्तोषरूप अमृत का पान करते हुए आनन्द में तिष्ठना होता है। जिनमार्ग में अन्तरंग और बहिरंग के भेद से दो प्रकार के तप का स्वरूप कहा गया है। बाह्य तप आत्मोत्थान में, आत्मा की चंचल चित्त-वृत्तियों को रोकने में और ध्यान की ओर अग्रसर करने में अर्थात् अन्तरंग तप में निमित्त हो, तभी उस बाह्य तप की सार्थकता है। बाह्य तपों में अनशन, अवमौदर्य आदि आते हैं, जो श्रेष्ठता के क्रम से बढ़ते हुए अन्तरंग तपों में प्रायश्चित आदि से होते हुए सर्वोत्कृष्ट ध्यान तप तक आते हैं। इस ध्यान रूप तप के द्वारा ही घातिकर्मों का नाश होकर केवलज्ञान की प्राप्ति पूर्वक जीव मुक्त होता है, अतः अपनी शक्ति को न छिपाते हुए तप करना, यह शक्तितस्तप नामक सातवीं भावना है। 8. साधु-समाधि भावना-व्रत-शीलादि अनेक गुणयुक्त, स्व और पर के आत्मोत्थान का कार्य सिद्ध करने वाले व्रती-संयमी साधुजनों पर किसी कारण से आने वाले विघ्न को दूर कर उनके व्रत-शील की रक्षा करना सो साधु समाधि भावना है। जिस प्रकार भण्डार में लगी अग्नि को गृहस्थ अपनी उपकारक या उपयोगी वस्तुएँ अन्दर रखी जानकर उसे बुझाने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्न साधु में विद्यमान रहते हैं, ऐसे साधु की रक्षा करना योग्य ही है। गृहस्थ को या साधु को भी उपसर्ग, मरणादि आ जाने पर भय को प्राप्त नहीं होना, वह साधु समाधि है। उपसर्ग स्थूलरूप से चार प्रकार के माने गये हैं-मनुष्यकृत, देवकृत, तिर्यंचकृत और अचेतनकृत । स्वाभाविक अवस्था को बदल देना उपसर्ग कहलाता है, चाहे ठंड के मौसम में मुनि के पास अग्नि जलाना हो या सोने के लिए घास आदि बिछाना, सभी उपसर्ग की कोटि में ही आता है। उपसर्ग के समय में भी यह चिन्तन करना कि मैं तो अखण्ड ज्ञानस्वभावी वस्तु हूँ, मेरा जन्म-मरण नहीं होता है। जो उत्पन्न हुआ है सो अवश्य ही विनशेगा। वह ज्ञानी जीव तो मरण को मित्रवत् मानता है। वह मृत्यु से डरता नहीं, अपितु ऐसा मानता है कि व्रततप-संयम का उत्तम फल मृत्यु नामक मित्र के उपकार बिना कैसे मिलता? वह देह से अपना स्वरूप भिन्न जानकर भय को प्राप्त नहीं होता। ऐसे ज्ञानी जीवों के ही साधु-समाधि नामक भावना होती है। असाता के प्रबल उदय को टालने में कोई समर्थ नहीं है, ऐसे में उन परिस्थितियों में राग-द्वेष करना व्यर्थ है तथा भव-भव में अनेक बार यह जीव समवसरण में गया, स्त्रीपुरुष हुआ, ऋद्धिधारी देव हुआ, पुण्य का फल भी भोगा, किन्तु रहा इसी संसार में । संसार से पार उतारने में तो धैर्य धारण करने पर होने वाली साधु-समाधि भावना ही है। 9. वैयावृत्य भावना-व्यपनोद, व्यावृत्ति और वैयावृत्ति एकार्थवाची शब्द हैं जिनका ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 441 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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