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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावना जिन भावों से मोहासक्त, मुग्ध, मोही जीव आत्मतन्त्र हो जाता है, दुःखदायी कर्मों को नष्ट कर सुख भोगता हुआ मुक्तिलाभ को प्राप्त कर स्वतन्त्र हो जाता है, उन भावों को जानकर, बारम्बार चिन्तन करना ही भावना है। आचार्य जयसेन कृत 'पंचास्तिकाय संग्रह' की तात्पर्यवृत्ति टीका में भावना को निम्न रूप में परिभाषित किया गया है - 'ज्ञातेऽर्थे पुनः पुनश्चिन्तनं भावना' । 46 । अर्थात् जाने हुए अर्थ को पुनः पुनः चिन्तन करना भावना है। जिनागम में भावनाएँ अनेकरूप में वर्णित हैं-भव्यजीवों के आनन्द की जनक वैराग्योत्पादक बारह भावनाएँ (अनुप्रेक्षाएँ), संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति सीखने रूप वैराग्यभावना तथा उत्कृष्ट तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म के बन्ध की कारण स्वरूप सोलह कारण भावनाएँ, देहान्त के समय में भाने योग्य समाधिभावना आदि बहुचर्चित भावनाएँ हैं। बारह भावना 'जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्'। 7/12 आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र यह जगत् और शरीर स्वभाव से ही संवेग और वैराग्य के लिए है। ऐसा जानकर नित्य स्थायी, ज्ञानघन, चैतन्य-आनन्द स्वभावी आत्मा के अनुभवी ज्ञानीजन उक्त क्षणस्थायी, स्वभाव से ही अशरण, असारभूत जगत से तथा अशुचिता का घर, आस्रव-बन्ध का कारण स्वरूप, मोह-राग-द्वेष का सर्वोत्तम सहायी, 'देह' के प्रति उदासीन होते हैं क्योंकि विषयासक्ति राग-द्वेष की कारण है और विषयविरक्तिपूर्वक आत्मरमणता राग-द्वेष के अभाव की या स्वाधीन, स्थायी, आत्मिक आनन्द की प्राप्ति की कारण है। ऐसी विषय-विरक्तता रूप वैराग्य-परिणति को जगाने के लिए अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षाएँ हैं, जिन्हें बारह भावनाएँ भी कहा जाता है। कविवर दौलतराम जी ने तो इन बारहों भावनाओं को 'वैराग्य रस को उत्पन्न करने के लिए माता के समान' कहा है। संसार, शरीर और भोगों के यथार्थ स्वरूप पर जब हम बार-बार चिन्तन करते हैं, तो उनकी नि:सारता, दुखमयता, दुःखकारणता समझ में आने लगती है, तब भ्रम ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 427 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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