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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया तथा अन्तत: स्वयं सिद्धत्व को प्राप्त हुए और इस प्रकार वे जैन परम्परा के वर्तमान हुण्डा-अवसर्पिणी कालचक्र के प्रथम तीर्थंकर हुए। ___ ऋषभ का उल्लेख प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य ऋग्वेद में है। सभी भारतीय पुराणकारों ने उनका स्मरण किया है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव के त्रिविध गुणों का उनमें समावेश बताया गया है। मनु, प्रजापति, अवतार और तीर्थंकर के रूप में सभी भारतीय परम्पराओं ने उनका समादर किया है। भारत-बाह्य सामी परम्परा में 'नबी''नाभेय' का उसी प्रकार रूपान्तर प्रतीत होता है, जिस प्रकार 'बुद्ध' का 'बुत' और नबी के रूप में नाभेय ऋषभ मानव को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले प्रथम शलाका-पुरुष (Key person) थे। सामी परम्परा में हजरत नूह का सामंजस्य यदि स्वयम्भू मनु से सहज है, तो हजरत इब्राहीम के प्रथम नबी के रूप में तीर्थंकर ऋषभदेव से साम्य को सांकेतिक मानना दुष्कर नहीं प्रतीत होता। प्रथम भरत चक्रवर्ती का सादृश्य शक्तिशाली नमरूद से चीन्हा जा सकता है। ये सब इस बात को इंगित करते हैं कि मानव का आदि-कालीन इतिहास विगत चार-पाँच हजार वर्षों के अनुश्रुतिगम्य ऐतिह्य से कहीं सुदूर अतीत में मानव के स्मृतिकोष में संचित रहा और मनुष्य अपने परिवेश की आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों के अनुरूप उसके विशिष्ट पात्रों का नामकरण एवं स्वरूप निर्धारण करता रहा। इस स्मृतिकोष में ऋषभदेव का मानव को कर्मभूमि में प्रवृत्त कर सभ्यता की ओर अग्रसर करने में एक शलाका-पुरुष के रूप में कार्य था। अत: किसी-न-किसी रूप में सभी परम्पराओं में उनका स्मरण किया जाता रहा। प्रथम चक्रवर्ती भरत जैनेतर भारतीय पौराणिक गाथाओं में स्वयम्भू मनु को मानव-सभ्यता का आदि प्रस्तोता माना गया है। इनके पुत्र प्रियव्रत और पौत्र नाभि थे। नाभि ने इस भूखण्ड को 'अजनाभ' संज्ञा प्रदान की। नाभि की पत्नी मरुदेवी से वृषभ या ऋषभ हुए और ऋषभ के एक सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ थे, जिन्हें ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते पिता का राज-सिंहासन प्राप्त हुआ। भरत अपने पितामह नाभि से भी अधिक प्रतापी थे और अब उनके नाम से यह भूखण्ड 'भारतवर्ष' कहलाने लगा। ___ 'भरत' का अर्थ होता है 'भरण और रक्षण करने वाला'। यह सूचित करता है कि भरत ने एक व्यवस्था का नियमन किया, जिसने तत्कालीन मानव जाति को एक व्यवस्थित संगठन प्रदान किया, ताकि प्रकृति को मानव अपने अनुकूल बना सके और अन्य प्राणि-समुदायों से अपनी रक्षा कर सके। व्यक्ति के रूप में भरत की ऐतिहासिकता सुनिश्चित करना सम्भव नहीं है, परन्तु सत्ता की सर्वोच्चता और लौकिक वैभव के प्रकर्ष की एक अवधारणा के रूप में इसे एक ऐतिहासिक तथ्य माना जा सकता है। __जैन एवं जैनेतर पौराणिक एवं अन्य कथा साहित्य में भरत के सम्बन्ध में जो उल्लेख 36 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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