SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानी दर्शनज्ञान उपयोग में स्थिर है। अत: उसके मिथ्यात्व, अविरति व योग रूप आस्रव का अभाव है। आस्रव के अभाव में कर्मों-नोकर्मों का निरोध है। कर्मों-नोकर्मों के निरोध से संसार का निरोध है। इससे सिद्ध हुआ कि आत्मोपलब्धि में मूल कारण स्व-पर में भेदविज्ञान ही है। ____5. निर्जरा-अधिकार में पहले तो द्रव्यनिर्जरा व भाव निर्जरा किन जीवों के किस प्रकार होती है?...- यह बताया। पश्चात् ज्ञान व वैराग्य का विस्तृत विवेचन किया है तथा कहा गया है कि "एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं। 1206 ।।" हे आत्मन्! यदि तू सुख चाहता है, तो उस आत्मानुभव में ही तल्लीन हो, उसी में सन्तुष्ट हो और उसी में तृप्त हो। अन्य सब इच्छाओं का त्याग कर दे, ऐसा करने से ही तुम्हें उत्तम सुख की प्राप्ति होगी। 6. बन्ध अधिकार में कहा गया है कि कर्मबन्ध का मूल कारण अपना अज्ञानजन्य राग-द्वेष-मोह रूप अध्यवसान है। यदि अध्यवसान भाव है, तो अन्य जीवों को मारो या न मारो, बन्ध होगा ही और यदि राग-द्वेष-मोह नहीं है, तो भले जीव मर जाये, तो भी बन्ध नहीं होगा। ___ यद्यपि रागादि भाव किसी न किसी व्यक्ति या वस्तु के अवलम्बन से ही होते हैं; परन्तु बन्ध उस व्यक्ति या वस्तु के कारण नहीं, बल्कि अपने अध्यवसान से होता है। अतः पर-वस्तु या व्यक्ति पर राग-द्वेष करना व्यर्थ है। इस अधिकार में पर को सुखी-दुःखी करने, मारने-बचाने (जीवित करने) आदि से सम्बन्धित 247 से 266 तक 20 गाथाएँ हैं, जो मिथ्या मान्यताओं पर सीधी चोट करती हैं। । इन्हीं के सम्बन्ध में आ. कुन्दकुन्ददेव ने 267 से 269 तक तीन गाथाओं में मार्मिक उद्बोधन करते हुए कहा है कि-हे भव्य! तुम जरा गहराई से सोचो कि जब तुम्हारा पर में कुछ भी हस्तक्षेप नहीं हो सकता, तो-फिर तुम क्यों व्यर्थ ही उनमें राग-द्वेष करके कर्म-बन्ध करते हो? 8. अन्त में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने इस सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार के माध्यम से पुनः जीव के अकर्तृत्व एवं अभोक्तृत्व स्वभाव का ही विस्तार से वर्णन कर जीव को सम्पूर्ण रूप से पर एवं विकारी पर्यायों से पृथक् सिद्ध करके पूर्ण स्वावलम्बी एवं स्वतन्त्र सिद्ध कर दिया है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का विषय भी मूलत: सर्वविशुद्ध ज्ञान स्वरूप है। ज्ञान का स्वभाव तो ज्ञेयों को जानना मात्र है। ज्ञेयों को जानने मात्र से ज्ञान में 408 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy