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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्व-पर के भेदज्ञान से शून्य अज्ञानी मरणकाल में अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से प्राण छोड़ने के कारण नरकादि गतियों में जाकर असीम दुःख भोगता है; वहीं ज्ञानी मरणकाल में वस्तुस्वरूप के चिन्तन से साम्यभावपूर्वक देह विसर्जित करके मरण' को 'समाधिमरण' में अथवा मृत्यु को महोत्सव में बदलकर स्वर्गादि सुखद गति को प्राप्त करता है। ___ यदि दूरदृष्टि से विचार किया जाय, तो मृत्यु-जैसा मित्र अन्य कोई नहीं है, जो जीवों को जीर्ण-शीर्ण-जर्जर तन-रूप कारागृह से निकालकर दिव्य-देह-रूप देवालय में पहुँचा देता है। कहा भी है "मृत्युराज उपकारी जिय कौ, तन सों तोहि छुड़ावै। नातर' या तन बन्दीगृह में, पड़ो-पड़ौ बिललावै॥" कल्पना करें, यदि मृत्यु न होती, तो और क्या-क्या होता, विश्व की व्यवस्था कैसी होती? अरे! सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में तो मृत्यु कोई गम्भीर समस्या ही नहीं है, क्योंकि उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व नष्ट होता प्रतीत नहीं होता। तत्त्व-ज्ञानी यह अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये भवन में निवास करने के समान स्थानान्तरण मात्र है, पुराना मैला-कुचैला वस्त्र उतारकर नया वस्त्र धारण करने के समान है; परन्तु जिसने जीवन-भर पापाचरण ही किया हो, आर्त-रौद्र-ध्यान ही किया हो, नरक-निगोद जाने की तैयारी ही की हो, उसका तो रहा-सहा पुण्य भी अब क्षीण हो रहा है, उस अज्ञानी और अभागे का दुःख कौन दूर कर सकता है? अब उसके मरण सुधरने का भी अवसर समाप्त हो गया है; क्योंकि उसकी तो अब गति के अनुसार मति को बिगड़ना ही है। सम्यग्दृष्टि या तत्त्वज्ञानी को देह में आत्मबुद्धि नहीं रहती। वह देह की नश्वरता, क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होता है। वह जानता है, विचारता है कि "नौ दरवाजे का पींजरा, तामें सुआ समाय। उड़वे को अचरज नहीं, अचरज रहवे माँहि ॥" __ अतः उसे मुख्यतया तो मृत्युभय नहीं होता; किन्तु कदाचित् यह भी सम्भव है कि सम्यग्दृष्टि भी मिथ्यादृष्टियों की तरह आँसू बहाये। पुराणों में भी ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं-रामचन्द्रजी क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे, तद्भव मोक्षगामी थे, फिर--भी छह महीने तक लक्ष्मण के शव को कन्धे पर ढोते फिरे । कविवर बनारसीदास की मरणासन्न विपन्न दशा देखकर लोगों ने यहाँ तक कहना प्रारम्भ कर दिया था कि-"पता नहीं इनके प्राण किस मोह-माया में अटके हैं ? ...लोगों की इस टीका-टिप्पणी को सुनकर उन्होंने स्लेट पट्टी माँगी और उस पर लिखा ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना। प्रगट्यो रूप स्वरूप, अनन्त सु सोहना।। जा परजै को अन्त, सत्यकरि जानना। चले बनारसिदास, फेर नहिं आवना॥ 378 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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