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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रीडा करते हैं, जिनका शरीर दिव्यमान है, जो लोकालोक को प्रत्यक्ष जानते हैं, वे सर्वज्ञ देव कहलाते हैं। सच्चा देव वही है जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो। जो किसी से न तो राग ही करता है, और न द्वेष, वही पूर्णज्ञानी वीतरागी कहलाता है। देव की वाणी को शास्त्र कहते हैं। वह वीतराग है, अत: उनकी वाणी भी वीतरागता की पोषक होती है। वीतरागी वाणी का आधार है-तत्त्व-चिन्तन । लोक में 'गुरु' का अर्थ है 'बडा'। जैनदर्शन में पंच परमेष्ठियों यथा-अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु में से एक परमेष्ठी विशेष होता है। वस्तुतः दिगम्बर परम्परा में नग्न दिगम्बर साधु को गुरु कहते हैं। गुरु सदा आत्मध्यान, स्वाध्याय में लीन रहते हैं। विषय भोगों की लालसा उनमें लेशमात्र भी नहीं होती। ऐसे तपस्वी साधुओं को गुरु कहते हैं। पंच परमेष्ठी, चैत्यालय, अकृत्रिम चैत्यालय, चौबीस तीर्थंकर, बीस तीर्थंकर और बाहुबली आदि जैन पूजा में पूज्य शक्तियाँ हैं। ___ जैनधर्म में ही नहीं अपितु सभी भारतीय धर्मों में उपासना विषयक स्वीकृति के परिदर्शन होते हैं। उपासना के विविध रूपों में पूजा का महनीय स्थान है। पूजा के स्वरूप उसके विधि-विधान तथा उद्देश्य विषयक विभिन्नताएँ होते हुए भी यह सर्वमान्य सत्य है कि संसार के दुःखी प्राणी अपने दुःख-संघात समाप्त करने के लिए पूजा को एक आवश्यक व्रत-अनुष्ठान स्वीकारते हैं। संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। अभय, क्षुधा, औषधि तथा ज्ञान विषयक सुविधाओं का वह आरम्भ से ही आकांक्षी रहा है। आरम्भ में इन आवश्यक सुविधाओं के अभाव में उसे दुःखानुभूति हुआ करती है। दुःख का सीधा सम्बन्ध उसकी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। मनोनुकूलता में उसे सुख और प्रतिकूलता में दुःखानुभूति हुआ करती है। आस्थावादी प्राणी अपनी इस दुःखद अवस्था से मुक्ति पाने के लिए सामान्यतः परोन्मुखी हो जाता है। ऐसी स्थिति में विवश होकर वह परकीय सत्ता के सम्मुख अपने को समर्पित कर उसकी गुण-गरिमा गाने-दुहराने लगता है। यही वस्तुतः पूजा की प्रारम्भिक तथा आवश्यक भूमिका होती है। लोकेषणा के वशीभूत होकर अर्थात् जोकि किसी भी प्रकार की इच्छा की पूर्ति की अभिलाषा रखने वाला सामान्य पूजक जैन पूजा करने की पात्रता प्राप्त नहीं कर पाता। इच्छा की पूर्ति के लिए की गई उपासना को जैनधर्म में मिथ्यात्व (जीवादि तत्त्वों के विपरीत श्रद्धा) की कोटि में माना गया है। पूजा परम्परा :: 363 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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