________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
वही भक्ति की सर्वोत्तम मनोदशा है। भक्ति वस्तुतः अनुभव-सिद्ध स्थिति का अपर नाम है। भक्त में जब इस स्थिति का प्रादुर्भाव होता है, तब उसके जीवन, विचार तथा आचार-पद्धति में प्रायः परिवर्तन दिखने लगते हैं। ज्ञान-प्राप्त्यर्थ पूजक भगवान जिनेन्द्र की पूजा करता है। जैन भक्ति में श्रद्धा तत्त्व की भूमिका उल्लेखनीय है। जिनेन्द्र भगवान में श्रद्धा रखने का अर्थ है अपनी आत्मा में अनुराग उत्पन्न करना। यही वस्तुतः सिद्धत्व की स्थिति है। जैनधर्म में साधुओं और सुधी श्रावकों की नित्य की चर्याप्रयोग में आने वाली भक्ति भावना को दस अनुभागों-सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगी, आचार्य, पंचपरमेष्ठि, तीर्थंकर, चैत्य, समाधि, वीर–में विभाजित किया गया है। इसके अतिरिक्त निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वर-भक्ति और शान्ति-भक्ति का भी उल्लेख मिलता है। नवधा भक्ति भी साधुजनों के आहार-दान के समय व्यवहार में प्रचलित है। जैन भक्ति में निराकार आत्मा और वीतराग भगवान के स्वरूप में जो तादात्म्य विद्यमान है। वह अन्यत्र प्रायः सुलभ नहीं है। जैनधर्म में सिद्धभक्ति के रूप में निष्कल ब्रह्म एवं तीर्थंकर भक्ति में सकल ब्रह्म का केवल विवेचन हेतु पृथक् उल्लेख अवश्य मिलता है। अन्यथा दोनों में समानता है। भक्त अथवा पूजक की मान्यता है कि उनकी वन्दना अथवा भक्ति से परम शुद्धि तथा सम्यक् ज्ञान प्राप्त होता है। केवलज्ञान प्राप्त होने पर अमित आनन्द की अनुभूति हुआ करती है ! जैन भक्ति में भक्त के सम्मुख निवृत्तिमूलक शुद्धोपयोग का उच्चादर्श विद्यमान रहता है। वह निरर्थक आवागमन से मुक्ति पाने के लिए अर्हन्त देव के दिव्य गुणों का चिन्तवन करता है और पूजा-पाठ के द्वारा अष्ट द्रव्यों से वसु-कर्मों के क्षयार्थ शुभ संकल्प करता है। इसके द्वारा क्रमशः अष्टद्रव्य का क्षेपण कर अमुक-अमुक कर्म त्यागने का संकल्प किया जाता है। जैन भक्ति में भगवान से किसी प्रकार की सांसारिक मनोकामना पूर्ण करने-कराने की अपेक्षा नहीं की जाती। पूजक अथवा भक्त अपने मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करने हेतु प्रभु के समक्ष शुभ संकल्पशील होता है। साथ ही वह प्रभु-गुणों का चिन्तवन कर तद्रूप बनने की भावना का चिन्तवन करता है।
पूज्य का आदर करना वस्तुतः पूजा है। राग-द्वेष-विहीन वीतराग आप्त पुरुष तथा पूज्य है। इस भौतिकवादी युग में व्यक्ति लोक-रंजना के कार्यों में इतने अधिक ग्रसित रहते हैं कि वे जिनपूजन के मंगल-कार्य के लिए समय ही नहीं निकाल पाते। वे कर्म परमाणु जो आत्मा के शान्त आनन्द स्वरूप को विकृत करके उसमें क्रोध, अहंकार आदि कषाय तथा राग-द्वेष रूप परिणति उत्पन्न कर देने वाले मोहनीय कर्म से जीवन में घिरे रहने के कारण कल्याण मार्ग में प्रवृत्त ही नहीं हो पाते। जिनेन्द्र पूजा वह संजीवनी रसायन है, जो अमंगल में भी मंगल का सूत्रपात कर देती है। जीवन में जागरुकता ला देती है। वीतराग भगवान जिनेन्द्र की जब पूजक पूजा करता है, तब वह भगवान जिनदेव के गुणों का चिन्तवन करता हुआ उनका वाचन-कीर्तन करता है। वह जितनी
358 :: जैनधर्म परिचय
For Private And Personal Use Only