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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिकर खण्डित होने पर-सेवक विनाशक श्रीवत्स खण्डित होने पर-सुख विनाशक मूलनायक जिनबिम्ब की दृष्टि वेदी निर्माण एवं वेदी प्रतिष्ठा के समय पूर्ण विधि-विधान एवं मूलनायक प्रतिमा की दृष्टि का ध्यान रखा जाना अनिवार्य है। मूलनायक प्रतिमा ब्रह्म स्थान एवं नाभिकेन्द्र को छोड़कर इस प्रकार स्थापित करें कि दृष्टि गज-आय से होकर बाहर निकले। यदि मूलनायक जिनबिम्ब की दृष्टि बाधित होती है तो प्रतिष्ठाकारक, समाज और नगर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। श्रावकों के स्वास्थ्य, व्यापार, उद्योग, मानसिक स्थिति सभी प्रभावित होते हैं। आय का वर्णन वास्तुसार, वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासार एवं प्रासाद मण्डन के अनुसार गर्भगृह के द्वार के सातवें भाग में रहना शुभ माना है। जिनबिम्ब दीवार से सटाकर या दीवार के अन्दर बनी वेदी में विराजमान नहीं करना चाहिए, इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार निर्दोष प्रतिमा विराजमान करके भाव-सहित मन, वचन, काय की विशुद्धिपूर्वक दर्शन-पूजन करने वाले को परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कल्याणक तीर्यते संसार-सागरो येन सः तीर्थः, तीर्थंकर। संसार पार होने वाले मार्ग को करने वाले जीव के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं मोक्ष के अवसर पर देवों एवं मनुष्यों द्वारा विशेष रूप से मनाये जाने वाले उत्सव विशेष को कल्याणक कहते हैं, इनकी संख्या पाँच होने से पंचकल्याणक कहलाते हैं, जिनसे भव्य जीवों के कल्याण (मोक्षमार्ग) का पथ प्रशस्त होता है। तीर्थंकर सत्ता को धारण करने वाले जीव पूर्व बाँधी आयु के अनुसार स्वर्ग या नरक में जाता है। वहाँ की आयु पूर्ण कर तीर्थंकर रूप में पंचकल्याणक-पूर्वक मोक्ष (सिद्ध अवस्था) को प्राप्त करता है। तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य जीव भी संयम एवं त्याग द्वारा वेदना देने वाले कर्मों से आत्मा को छुड़ाकर सिद्ध-अवस्था को प्राप्त कर सिद्धजीव कहलाते हैं। वह पुनः संसार में नहीं आएँगे; जैसे दूध, दही एवं नवनीत बनकर अपनी अशुद्धियों को हटाकर घी रूप परिणत हो जाता है, वह पुनः दूध-रूप नहीं हो सकता है। जैनेतर भारतीय धर्मों में यह मान्यता है कि अपराध, अत्याचार एवं हिंसा बढ़ने पर भगवान् ही महापुरुष के रूप में जन्म लेकर अवतरित होते हैं और सत्पुरुषों का संरक्षण करते हैं। यह मान्यता जैन परम्परा में स्वीकार्य नहीं है। प्रतिष्ठा विधि एवं साहित्य :: 341 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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