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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उनका विश्वास अनुष्ठान-विधि में बढ़ता है। पात्रों की संयम-साधना, अभक्ष्य-त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन, कषाय-प्रवृत्तियों पर अंकुश करने से उनके चित्त का शोधन होता है, जिसका प्रभाव प्रतिष्ठेय वस्तु पर पड़ता है। इसीलिए प्रतिष्ठा-पाठों में प्रतिष्ठा कराने वाले की योग्यताओं का विशद वर्णन मिलता है। बात इतनी ही नहीं, प्रतिष्ठा के कराने वाले आचार्य, पण्डित आदि की योग्यता का उल्लेख भी शास्त्रों में है। सूरिमन्त्र प्रदाता आचार्य, इन्द्र क्रिया का कर्ता, यज्ञ का कर्ता, यजमान, उसकी पत्नी, पूजन-कर्ता आदि ये पाँचों व्रतधारी होने चाहिए। सामग्री सम्पादित करने वाला, मन्त्री, सभासद, अध्यापक, पाठवक्ता. पण्डित, श्री. ही आदि कन्याएँ व लौकान्तिक देव के रूप में भी साधर्मीजन पात्र के रूप में प्रतिष्ठा में सम्मिलित होते हैं। इन सबकी योग्यता के बारे में भी शास्त्रों में लेख हैं, जो प्रमुख रूप से उनके संयमी जीवन का आधार बनते हैं । __ प्रतिष्ठाकर्ता-यजमान न्याय-मार्ग से आजीविका करने वाला, गुरु की भक्ति करने वाला, निन्दा आदि दोषों से रहित, विनयवान, ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वर्ण वाला व्रत क्रिया, वन्दना आदि में सावधान, शीलवान, श्रद्धावान, सद्दाता के गुणों से युक्त, महान् कार्य करने का इच्छुक, शास्त्रज्ञ, मन्दकषायी, निष्कलंक, कुकर्म-उन्माद व अपवाद से दूर रहने वाला और जैनधर्म में उदार बुद्धिवाला व्यक्ति होना चाहिए। जैन परम्परा में यजमान के पर्यायवाची के रूप में यज्वा, याजक, यष्टा, पूजक, षटकर्मा, याज्ञकृत, संघी आदि शब्द मिलते हैं। __जहाँ जैन-परम्परा प्रतिष्ठा के योग्य पात्रों का उल्लेख करती है, वहीं कौन प्रतिष्ठा नहीं करा सकता है, इस बात का उल्लेख भी जैन शास्त्रों में है, भील अर्थात् शिकार करने वाला, सुनार, भैरों, चण्डिका की पूजा करने वाला, चोरी करने वाला, स्त्री का व्यभिचार कराकर धन अर्जित करने वाला, जुआरी, व्यसनी, रौद्र का रूप मदिरा आदि तथा खेती करने वाले, दूसरे का धन लगाकर अपना यश चाहने वाले, संघ के निन्दक, राज्य के द्रव्य का हरण करने वाले, निर्माल्य के भोक्ता के द्रव्य का प्रतिष्ठा में निषेध है। इस पूरी प्रक्रिया के पीछे जैन विचार-शास्त्रियों का भाव उत्तम समाज के निर्माण का रहा है। इसीलिए वहाँ प्रतिष्ठाकर्ता के द्विविध स्वरूप का उल्लेख है। ठीक इसी प्रकार जिस प्रकार प्रतिष्ठा-कर्ता की योग्यताओं और अयोग्यताओं का उल्लेख जैन परम्परा में है, ठीक वैसे ही जैन शास्त्रों के अनुसार कोई भी शास्त्रज्ञ प्रतिष्ठाचार्य, इन्द्र, शची, दिक्कन्या आदि के रूप में संयम आदि का पालन न करने वाला अपनी भूमिका नहीं निभा सकता है। इनके चयन के भी जो आधार हैं, वे आधार निश्चित रूप में एक उत्तम समाज के निर्माण का संकेत करते हैं। बिम्ब-निर्माण-विधि प्रतिष्ठा ग्रन्थों में बिम्ब निर्माता किस तरह का हो, उसका शिल्पी कैसा हो, शिल्पी प्रतिष्ठा विधि एवं साहित्य :: 337 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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