________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रतिष्ठा विधि एवं साहित्य
ब्र. जयकुमार ‘निशान्त' जैन धार्मिक परम्परा में देव-दर्शन एवं पूजा प्रत्येक गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है। देव दर्शन से जहाँ पुण्य की प्राप्ति होती है, वहीं कर्मों की निर्जरा भी होती है', ऐसी जैन दार्शनिक मान्यता है। इसीलिए जैन-परम्परा में देवदर्शन-स्तोत्र में निम्नांकित उल्लेख मिलता है
दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्षसाधनम्।। दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां वन्दनेन च।
न चिरं तिष्ठते पापं छिद्रहस्ते यथोदकम्।। अर्थात् 'जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन पापों को नष्ट करने वाला है, स्वर्ग की सीढ़ी है, मोक्ष का साधन है एवं जिनेन्द्र भगवान के दर्शन व साधुओं की वन्दना से पाप चिरकाल तक ठहर नहीं सकता अर्थात् अविलम्ब नष्ट होता है, ठीक वैसे ही जैसे खुली अंगुलियों वाली अंजुली में पानी नहीं ठहरता है।' साक्षात् जिनेन्द्र देव का दर्शन आज सम्भव नहीं है, वह जिनबिम्ब के माध्यम से ही घटित होता है; पर जिनबिम्ब यदि केवल पाषाण, रत्न या धातु का बना है और उसमें प्रतिष्ठा नहीं हुई है, तो वह भी बहुत-काम का नहीं है, क्योंकि प्रतिष्ठा से ही बिम्ब में गुणों का आरोपण होता है और उन आरोपित गुणों के साथ जुड़ाव से ही पुण्यार्जन होता है व व्यक्ति में अन्ततः कर्मों की निर्जरा की प्रवृत्ति और बिम्ब में उसका निमित्त बनने की शक्ति जाग्रत होती है।
संस्कृत व्याकरण शास्त्र के अनुसार प्रतिष्ठा शब्द 'प्रति' उपसर्गपूर्वक 'स्था' धातु से 'अ' व 'टाप' प्रत्यय लगने पर निष्पन्न होता है। इसके अपने-अपने सन्दर्भ में अनेक अर्थ हैं, सभी धर्मावलम्बी अपने आराध्य की स्थापना चित्र, ग्रन्थ, प्रतिमा, यन्त्र आदि में करते हैं और इस प्रतिष्ठापना-क्रिया के बाद वह माध्यम रूप कागज, धातु या पाषाण पाषाण नहीं रह जाता, वह उसके आराध्य के रूप में उसकी श्रद्धा, आस्था एवं समर्पण के केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। यह प्रतिष्ठापना-क्रिया सत्पुरुषों के सान्निध्य में मांगलिक अनुष्ठानपूर्वक मन्त्रों के द्वारा होती है और इसी प्रकार इसी
प्रतिष्ठा विधि एवं साहित्य :: 335
For Private And Personal Use Only