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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाहिए, क्योंकि जब तक अभिसन्धि (अभिप्राय) पूर्वक वस्तु का त्याग नहीं किया जाता है, तब तक वह व्रत नहीं माना जा सकता। जो स्व को इष्ट है, परन्तु शिष्टजनों के लिए उपसेव्य नहीं है, धारण करने योग्य नहीं है, ऐसे विचित्र प्रकार के वस्त्र, विकृत वेष, आभरण आदि अनुपसेव्य पदार्थों का यावज्जीवन परित्याग करना चाहिए। यदि यावज्जीवन त्याग करने की शक्ति नहीं हो, तो अमुक समय की मर्यादा से अमुक वस्तुओं का परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिए। भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार- (1) सचिताहार, (2) सम्बन्धाहार, (3) सम्मिश्राहार, (4) अभिषवाहार और (5) दुःपक्वाहार। (1) सचिताहार- चेतनता-सहित द्रव्य का आहार सचिताहार है। (2) सम्बन्धाहार- सचित से सम्बन्ध को प्राप्त हुआ द्रव्य सम्बन्धाहार है। (3) सम्मिश्राहार- मिश्रित द्रव्य का आहार सम्मिश्राहार है। (4) अभिषवाहार- द्रव्य, सिरका आदि और उत्तेजक भोजन अभिषावाहार कहलाता है। ___(5) दुःपक्वाहार- जो ठीक तरह से नहीं पका हो, ऐसा आहार दुःपक्वाहार 4. अतिथिसंविभाग व्रत- चारित्र लाभ रूपी बल से सम्पन्न होने के कारण जो संयम का विनाश न करके भ्रमण करता है, वह अतिथि है अथवा जिसके आने की तिथि निश्चित न हो वह अतिथि है। संविभजन को संविभाग कहते हैं। अतिथि के लिए संविभाग दान देना अतिथि-संविभाग है। व्रती श्रावक प्रतिदिन अपने भोजन से पूर्व उत्तम, मध्यम, जघन्य तीन प्रकार के पात्रों की प्रतीक्षा करता है। श्रावक सिर्फ आहार दान ही नहीं देता बल्कि आवश्यकता के अनुसार औषधि-दान भी देता है, समयसमय पर मुनियों को पिच्छी, कमंडलु एवं शास्त्रादि उपकरण भी देता है। इसी प्रकार मुनियों के रहने योग्य स्थान भी बनवाकर या व्यवस्था कर स्वयं को कृतार्थ करता है। ये सब क्रियाएँ अतिथि-संविभाग-व्रत के अन्तर्गत आती हैं। इस प्रकार अभ्यागत अतिथि की पूजा और सत्कार करने से उसके द्वारा गृह-कार्यों से अर्जित समस्त पाप धुल जाते __ अतिथिसंविभागवत के अतिचार- सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, पर-व्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये पाँच अतिथि-संविभाग-व्रत के अतिचार हैं। सचित्त कमल-पत्र आदि पर रखी हुई वस्तु सचित्त-निक्षेप कहलाती है। प्रकरणवश सचित्त से ढकना सचित्तापिधान है। दाता दूसरे स्थान पर, यह देने योग्य पदार्थ भी दूसरे व्यक्ति का है, ऐसा कहकर अर्पण करना पर-व्यपदेश है। आहार देते समय आदर भाव के बिना देना मात्सर्य कहलाता है। अनगारों के अयोग्य काल में आहार देना कालातिक्रम कहा जाता 330 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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