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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3.मौखर्य- धृष्टतापूर्वक यदा-कदा बहुप्रलाप करना, शालीनता का त्याग कर निर्लज्जतापूर्वक बकवास करना मौखर्य नामक अतिचार है। 4. असमीक्ष्याधिकरण- मन-वचन-काय की निष्प्रयोजन चेष्टा असमीक्ष्याधिकरण ___5. उपभोगपरिभोगानर्थक्य- उपभोग और परिभोग की सामग्री को आवश्यकता से अधिक संग्रह करके रखना। मकान, कपड़े, फर्नीचर आदि आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी इसी अतिचार के अन्तर्गत ही है। ___ इस तरह अनर्थदंडविरमणव्रत से मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रवृत्तियाँ विशुद्ध होती हैं, जिससे श्रावक सामायिक आदि अगले व्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन कर सकता है। शिक्षाव्रत अणुव्रतों और गुणव्रतों का पालन जिस प्रकार आवश्यक है, उसी प्रकार श्रावक चार शिक्षाव्रतों का भी पालन करता है। सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण, अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। इनसे मुनि बनने की शिक्षा/प्रेरणा मिलती है, इसलिए इन्हें शिक्षाव्रत कहते हैं। श्रावक इन्हें विशेष रूप से पालता है। साधु-अवस्था में जिन कार्यों को विशेष रूप से करना होता है, उनका अभ्यास करना ही शिक्षाव्रत का प्रमुख उद्देश्य है। उपर्युक्त चारों शिक्षाव्रतों का क्रमशः विवेचन इस प्रकार है___1. सामायिक- सामायिक ध्यान का श्रेष्ठ साधन है। मन की शुद्धि का श्रेष्ठ उपाय है। सामायिक में मूल शब्द 'समय' है, जिसका अर्थ है एक-साथ जानना व गमन करना। 'आय' अर्थात् प्राणियों की हिंसा के हेतुभूत परिणाम । उस आय या अनर्थ का सम्यक् प्रकार से नष्ट हो जाना ही समय है अथवा सम्यक् आय अर्थात् आत्मा के साथ एकीभूत होना सो समय है। उस समय में हो या वह समय ही है प्रयोजन जिसका, सो सामायिक है। तात्पर्य यह है कि हिंसादि अनर्थों से सतर्क रहना सामायिक है। अमितगतिश्रावकाचार के अनुसार-जीवन व मरण में, संयोग व वियोग में, अप्रिय व प्रिय में, शत्रु व मित्र में, सुख व दुःख में समभाव को सामायिक कहते हैं। सामायिक करने के लिए उद्यत व्रती सबसे पहले केश-बन्धन करे। मुष्ठि और वस्त्र में बन्धन कर प्रतिज्ञा करे कि इनके खुलने तक मैं आत्मविचार या सामायिक करूँगा। इसी प्रकार पर्यंक-आसन, पद्मासन आदि आसनों में बैठकर बैठक का नियम भी कर लेवे, इसी का नाम सामायिक है। सामायिक स्थान स्त्री, पाखंडी, तिर्यंच, भूत, बेताल आदि; वे व्याघ्र, सिंह आदि तथा अधिक जन-संसर्ग से दूर होना चाहिए, निराकुल होना चाहिए। सामायिक करने वाले अचलयोग होते हुए शीत, उष्ण, डांस-मच्छर आदि श्रावकाचार :: 327 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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