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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बारह व्रत (पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) ग्रहण करने पर होता है। एकदेशचारित्र या संयम का अभ्यास सकलचारित्र की प्राप्ति में सहायक होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को धारण करने वाले पुरुष या स्त्री के द्वारा बारह व्रतों का आचरण करना, उसके कल्याण को करने वाला है। व्रत धारण करने से पुण्य-कर्म का आस्रव होता है। अव्रत सेवन से पाप-कर्म का आस्रव होता है। आचार्यों ने व्रती जीवन को ही श्रेयस्कर माना है। व्रतों को ग्रहण करने वाला ही व्रती है। व्रती का जीवन ही मंगलमय होता है। श्रीमद् उमास्वामी ने शल्यरहित व्रती होता है, ऐसा कहा है। विविध प्रकार की वेदना रूपी शलाकाओं के द्वारा जो प्राणियों को छेदती हैं, दुःख देती हैं, वे शल्य कहलाती हैं। __ माया, मिथ्या और निदान के भेद से शल्य तीन प्रकार की है। माया विकृति, वंचना, छल-कपट आदि ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। विषय-भोगों की कांक्षा निदान है। अतत्त्व-श्रद्धान मिथ्यादर्शन है। इन तीन प्रकार की शल्यों से निष्क्रान्त (नि:शल्य) व्यक्ति व्रती कहलाता है। आगारी गृहस्थ और अनगारी मुनि के भेद से व्रती दो प्रकार के हैं। अगार (घर) जिसके है, वह आगारी कहलाता है, जैसे गृहस्थ। जिसके अगार नहीं है, वह अनगार कहलाता है, जैसे-मुनि। इसके अतिरिक्त अणुव्रतों का धारक अगारी कहलाता है। ___ मानव जीवन की श्रेष्ठता और सार्थकता का महर्षियों ने गहन चिन्तन किया है। उसकी दुर्लभता प्रतिपादित की है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन चारों संज्ञाएँ मनुष्य और तिर्यंचों में समान रूप से पायी जाती हैं। किन्तु मानव अपने जीवन को समुन्नत बनाने के लिए नियम व्रत आदि का पालन एवं धारण कर सकता है। अपने विचारों व प्रवृत्तियों पर संयम का अंकुश लगा सकता है। सबसे पहले यह विचार करना चाहिए कि व्रत क्या है? स्वच्छन्दवृत्ति में अभ्यस्त यह जीव पंचेन्द्रियों के विषयों में अनियन्त्रित रूप से प्रवृत्ति करता है, उस अनियन्त्रित जीवन के प्रभाव से भूल जाता है कि मैं कौन हूँ? मेरा कर्तव्य क्या है? उस स्वछन्द आवेग को नियन्त्रित करने वाली प्रवृत्ति ही व्रत कहलाती है। वृञ् वरणे' धातु से व्रत शब्द बना है, जिसका अर्थ है स्वेच्छा से मर्यादा को स्वीकार करना। व्रत पालन का उद्देश्य-जीव सदा अशुभ भावों से प्रेरित होकर संसार-संवर्द्धन की प्रवृत्ति करता रहा है, उससे नाना प्रकार के संक्लेश परिणामों के वशीभूत होकर वह आत्म-पतन करता है, ऐसी स्थिति में उसे अशुभ-प्रवृत्ति से निवृत्त कर शुभ-प्रवृत्ति में प्रवृत्त कराना आवश्यक है। यह उद्देश्य इन व्रतों के पालन से पूर्ण होता है। ___ तत्त्वार्थसूत्र प्रणेता आचार्य उमास्वामी ने जिनवचन का आश्रय लेकर कहा हैहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरति का नाम व्रत है। आचार्य पूज्यपाद व्रत को नियम रूप से प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि-'अभिप्राय पूर्वक अथवा संकल्प 314 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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