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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानञ्चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।। - पद्मनन्दि - पञ्चविंशतिका अर्थात् देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छह गृहस्थों के प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक कार्य हैं । प्रायः सभी आचार्य पद्मनन्दि आचार्य के उक्त कथन से पूर्णरूपेण सहमत हैं। इनका क्रमशः वर्णन इस प्रकार है 1. देवपूजा - जिनागम में अर्हन्त और सिद्धपरमेष्ठी की देवसंज्ञा है, इनकी जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन आठ द्रव्यों के द्वारा पूजा करना देवपूजा है। देवपूजा के नित्यपूजा, आष्टाह्निकपूजा, इन्द्रध्वजपूजा, महामह अथवा सर्वतोभद्र और कल्पद्रुममह के भेद से पाँच भेद हैं। पूजा करते समय किसी लौकिक फल की आकांक्षा न कर अपने ज्ञानानन्द स्वभावी वीतराग स्वरूप आत्मा की ओर लक्ष्य रखना चाहिए । ज्ञानी जीव अर्हन्तदेव के गुणों के प्रति अपना लक्ष्य स्थिर कर अपने कर्तव्य का पालन करता है। 2. गुरूपास्ति - निर्ग्रन्थ मुनि मोक्षमार्ग के साधक हैं, अतः उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हुए उनकी उपासना करना श्रावक का कर्तव्य है । मुनिमार्ग खड्ग की धार पर चलने के समान कठिन है, उसे धारण करने का साहस विरले ही मनुष्य करते हैं । इसलिए आहार - दान तथा वैयावृत्य आदि के द्वारा सुविधा पहुँचाते हुए उन्हें उस मार्ग में उत्साहित करते रहना आवश्यक है I I 3. स्वाध्याय- अपना अपने ही भीतर अध्ययन, आत्म-चिन्तन, आत्म-मनन ही स्वाध्याय है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध हो, इस अभिप्राय से विधिपूर्वक स्वाध्याय करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है । आत्मज्ञान के बिना अनेक शास्त्रों का ज्ञान भी निरर्थक है और आत्मज्ञान के साथ अष्ट प्रवचनमातृका का जघन्य श्रुतज्ञान भी इस जीव को अन्तर्मुहूर्त में सर्वज्ञ बना देता है, अतः शास्त्र पढ़ते समय स्वकीय शुद्धस्वरूप की ओर लक्ष्य रखना चाहिए। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के बीच में सम्यग्ज्ञान को आचार्यों इसी उद्देश्य से रखा है कि वह सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र दोनों को बल पहुँचाता है । 4. संयम - बढ़ती हुई इच्छाओं को नियन्त्रित करना तथा हिंसादि पाँच पापों से विरक्त होना संयम है । यह संयम इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम के भेद से दो प्रकार का है । पाँच इन्द्रियों और मन की उद्दाम प्रवृत्ति को रोकना इन्द्रिय संयम है और छह काय के जीवों की यथाशक्य रक्षा करना प्राणिसंयम है। For Private And Personal Use Only जिस प्रकार लगाम के बिना घोड़ा स्वच्छन्दाचारी हो जाता है, उसी प्रकार संयम के बिना मनुष्य स्वछन्दाचारी हो जाता है। स्वछन्दाचारी होना संसार को बढ़ावा है और संयम को धारण करना मोक्ष का मार्ग है । 312 :: जैनधर्म परिचय
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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