SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कारण-कार्य-विवेचन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रो. श्रीयांशकुमार सिंघई जगत् में विद्यमान विविध वस्तुएँ, उनके क्रिया-कलाप आदि का समीचीन अवबोध कार्य-कारण प्ररूपणा के बिना सम्भव नहीं है । अध्ययन या अवबोधन की एक शाखा के रूप में हम इसे दर्शनशास्त्रीय विषय मान सकते हैं । भारतीय वाङ्मय की प्रत्येक धारा में इसका विवेचन है । मानव जीवन का हर पहलू ही कार्य-कारण ही परिधि होता हुआ लगता है। अपने स्वाभाविक, सांयोगिक आदि परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक वस्तु कार्य-कारण मीमांसा से मूल्यांकित होती है और उससे ही हमें उसका सत्यानुबोध सम्भव हो पाता है। अन्धविश्वासों एवं कोरी कल्पनाओं से जनित अज्ञान का उन्मूलन भी कार्य-कारण की सच्ची समझ से ही सम्भव है । सत्य-असत्य का विवेक, हितअहित की समझ, शास्त्रोद्भूत बुद्धि का परीक्षण, साम्प्रदायिक या धार्मिक आस्थाओं का मूल्यांकन कर पाना कार्य-कारण की वास्तविक विवेचना से ही सम्भव हो पाता है । संस्कृत व्याकरण के अनुसार कार्य-कारण शब्द डुकृञ् करणे, कृञ् वधे और कृञ् विक्षेपे धातुओं से निष्पन्न होते हैं । व्युत्पत्तिमूलक इन शब्दों से हमें उनके मौलिक एवं यथार्थ अभिधेय का बोध होता है । अतः संस्कृत वाङ्मय में कार्य-कारण शब्दों के विभिन्न अर्थों की अभिव्यक्ति स्वीकृत की जा सकती है, किन्तु क्रिया - निष्पादन के सन्दर्भ में ही इनका प्रयोग प्रचुरता से उपलब्ध होता है तथा इस अर्थाभिव्यक्ति के लिए ही दर्शनशास्त्र में इनका प्रयोग स्वीकृत माना गया है। दर्शनशास्त्र में क्रिया के परिणाम अर्थात् भाव या कर्म को कार्य कहते हैं तथा क्रिया के होने में प्रेरकपने या स्वभावपने का जो हेतु होता है उसे कारण कहते हैं । क्रिया वस्तुओं में एवं उनके सांयोगिक स्वरूपों या पदार्थों में ही होती है, अवस्तु या काल्पनिक वस्तुओं में नहीं । अतः कार्य-कारण की विवेचना वस्तुमूलक ही होना चाहिए । प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तुओं की जानकारी तथा उनकी परिधि या मर्यादा आदि की स्वीकृति भी काल्पनिक न होकर वास्तविक ही होना चाहिए, क्योंकि वास्तविक वस्तुओं की ही सयुक्तिक एवं यथार्थमूलक विवेचना सम्भव होती है, जिसके होने पर ही हम कार्यकारण को यथार्थतः समझ सकते हैं, अन्यथा विवादग्रस्त बुद्धि या परिणति से ही हमारा कारण-कार्य-विवेचन :: 295 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy