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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मज्ञान से सम्पन्न होने के कारण अभिप्राय की अपेक्षा विषयों के प्रति सहज उदासीन होता है । चरणानुयोग के अनुसार आचरण में इसके पंचेन्द्रियों के विषयों का तथा त्रस - स्थावर जीवों के घात का त्याग नहीं होता। इसलिए इसके बारह प्रकार की अविरति पायी जाती है । भोग भोगते हुए उनमें लिप्त नहीं होता, जल के बीच कमल की तरह निर्लिप्त रहता है । लक्ष्य तथा बोध शुद्ध हो जाने से संयम के पथ पर अग्रसर होने के लिए उत्कण्ठित रहता है। 1 5. देशविरत या संयतासंयत- चतुर्थ गुणस्थान वाला सम्यग्दृष्टि जीव अपनी आत्मा `की आंशिक शुद्ध परिणति को स्वसन्मुख पुरुषार्थ द्वारा बढ़ाता हुआ पंचम गुणस्थान को प्राप्त करता है । इस दशा में आत्मा का निर्विकल्प अनुभव (चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा) शीघ्र - शीघ्र होने लगता है और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव हो जाता है । आत्मिक शान्ति बढ़ जाने के कारण, पर से उदासीनता बढ़ती जाती है तथा सहज देशव्रत के शुभ भाव होते हैं। अतः श्रावक के व्रतों का यथावत् पालन करता है, परन्तु अपनी शुद्ध परिणति विशेष उग्र नहीं होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के सद्भाव बने रहने से भावरूप मुनिपद का अधिकारी नहीं हो सकता है । यह अवस्था ही देशविरत नामक पंचम गुणस्थान है। इसे व्रताव्रत या संयतासंयत गुणस्थान भी कहते हैं; क्योंकि अन्तरंग में निश्चय व्रताव्रत या निश्चय संयमासंयम रूप दशा होती है और बाह्य में एक ही समय में त्रसवध से विरत और स्थावरवध से अविरत रहता है । इस गुणस्थान वाले श्रावक के अणुव्रत नियम से होते हैं । ग्यारह प्रतिमाओं के धारक आत्मज्ञानी क्षुल्लक, ऐलक एवं आर्यिका इसी गुणस्थान में आते हैं। 6. प्रमत्तसंयत-जिस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष ने निज द्रव्याश्रित पुरुषार्थ द्वारा पंचम गुणस्थान से अधिक शुद्धि प्राप्त करके निश्चय सकल संयम प्रकट किया है और साथ में कुछ प्रमाद भी वर्तता है, उन्हें प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज कहते हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी बारह कषायों का अभाव होने से पूर्ण संयमभाव होने के साथ संज्वलन कषाय और नोकषाय की यथासम्भव तीव्रता रहने से संयम को मलिन करने वाला प्रमाद भी होता है, इसलिए इस गुणस्थान की प्रमत्त संयत संज्ञा सार्थक है। इस गुणस्थान में मुनिराज महाव्रतों की अपेक्षा सविकल्प अवस्था में ही होते हैं, इसलिए यद्यपि इसमें उपदेश, आहार, निहार, विहार आदि विकल्प होते हैं, तथापि मुनियोग्य आन्तरिक शुद्ध परिणति ( निश्चय संयम दशा) निरन्तर बनी रहती है, और उसके अनुरूप 28 मूलगुण व उत्तर गुणों का और शील के सब भेदों का यथावत् पालन भी सहज होता है । चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों के कारण आचरण किंचित् दूषित बना रहता है, किन्तु छठे गुणस्थान योग्य निश्चय संयम का 288 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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