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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकृति के उदय होने तथा अन्य छह प्रकृतियों के अनुदय से आत्मा में जो समल सम्यक्त्वगुण प्रकट होता है, वह क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व-भाव कहलाता है। यह भाव चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीवों में पाया जा सकता है। इसका सद्भाव चारों गतियों में पाया जाता है। (ऊ) क्षायोपशमिक चारित्र- अनन्तानुबन्धी चार, अप्रत्याख्यानावरण चार, प्रत्याख्यानावरण चार कुल 12 कषायों का अनुदय होने से तथा संज्वलन चार (क्रोध, मान, माया, लोभ) का उदय होने से जो आत्म-विशुद्धि-रूप भाव पाया जाता है, उसे क्षायोपशमिक चारित्र कहते हैं। यह छठे तथा सांतवें गुणस्थानवर्ती मुनिराजों के होता है। (ए) संयमासंयम- अनन्तानुबन्धी चार तथा अप्रत्याख्यानावरण चार =8 कषायों का अनुदय होने, प्रत्याख्यानावरण चार के उदय होने तथा संज्वलन कषाय के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने से, आत्मा में जो देश-चारित्र-रूप-भाव उत्पन्न होता है, उसे संयमासंयम भाव कहते हैं। यह भाव सिर्फ कर्मभूमिया मनुष्यों तथा तिर्यंचों में सम्भव है। सभी सम्यग्दृष्टि व्रतियों, क्षुल्लक, ऐलक, आर्यिकादि में यह भाव पाया जाता है। ____4. औदयिक भाव-कर्मों के उदय से आत्मा में जो भाव प्रकट होते हैं, उन्हें औदयिक भाव कहते हैं। ये सभी संसारी जीवों के पाये जाते हैं। केवली भगवान के भी औदयिक भाव होते हैं। उसके इक्कीस भेद हैं (अ) चार गति- नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति तथा देव गति नाम कर्म के उदय से, आत्मा में जो उस गति रूप भाव होता है अर्थात् मनुष्य-गति-नाम- कर्म के उदय से 'मैं मनुष्य हूँ' ऐसा भाव सदा बना रहना मनुष्य-गति-औदयिक-भाव है। इसी प्रकार चारों गतियों में समझना चाहिए। एक जीव में इन चारों में से एक समय में एक ही भाव होता है। प्रत्येक संसारी जीव के यह भाव अवश्य पाया जाता है। इसके चार भेद हुए। (आ) चार कषाय- चारित्र मोहनीय के भेद क्रोध, मान, माया तथा लोभ कषाय के उदय से आत्मा में जो कषाय-रूप-भाव उत्पन्न होता है, वह कषाय औदयिक भाव है। इसके चार भेद होते हैं। नरक, तिर्यंच तथा देव गति के समस्त जीवों के यह भाव हमेशा पाया जाता है। मनुष्य गति में नौवें गुणस्थान तक के जीवों में चारों कषायों का तथा दसवें गुणस्थान के जीवों में लोभ-कषाय-रूप-भाव पाया जाता है। इससे आगे के गुणस्थानों में यह नहीं पाया जाता। __(इ) तीन लिंग- चारित्र मोहनीय के भेद पुरुषवेद, स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद कर्म के उदय से आत्मा में जो वासना-रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह लिंग औदयिक भाव है। इसके तीन भेद हैं। नौवें गुणस्थान तक प्रत्येक जीव में एक लिंग का उदय अवश्य होता (ई) मिथ्यादर्शन- दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से तत्त्वार्थ में अश्रद्धान रूप मिथ्यादर्शन-भाव होता है। असैनी पंचेन्द्रिय तक प्रत्येक जीव के इसका उदय पाया जाता औपशमिक आदि जीव के भाव :: 267 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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