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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के कारण आत्मा में जो परिणाम होते हैं, उनको औदयिक भाव कहा जाता है । 5. पारिणामिक भाव - जैसे गन्दगी न रहने से पानी स्वभाव से स्वच्छ रहता है, उसी प्रकार कर्मों के उदयादि की अपेक्षा से रहित आत्मा के जो स्वाभाविक परिणाम होते हैं, उनको पारिणामिक भाव कहा जाता है । जीव की कोई भी अवस्था हो, चाहे वह संसारी हो या मुक्त हो, वह उपर्युक्त भावों से सर्वथा रहित नहीं हो सकता । संसारी अवस्था में जीव के क्षायोपशमिक, औदयिक तथा पारिणामिक ये तीन भाव तो होते ही हैं। इनसे कम, मात्र एक या दो भाव, किसी भी संसारी जीव के नहीं पाये जाते । किसी संसारी जीव के चार भाव तथा पाँचों भाव भी एक काल में होना सम्भव हैं। मुक्त जीवों में क्षायिक भाव तथा पारिणामिक, ये दो भाव सदैव पाये जाते हैं। औपशमिक भाव के दो, क्षायिक भाव के नौ, क्षायोपशमिक भाव के अठारह, औदयिक भाव के इक्कीस तथा पारिणामिक भाव के तीन इस तरह भाव त्रेपन प्रकार के होते हैं । औपशमिक आदि भावों के भेद 1. औपशमिक भाव के दो भेद - मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में मिथ्यात्व तथा कषाय रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं। यदि मोहनीय कर्म का उपशम हो जाय, तो आत्मा में ये परिणाम उत्पन्न नहीं होते। अतः मोहनीय कर्म के उपशम होने से आत्मा में दो प्रकार के औपशमिक भाव उत्पन्न होते हैं 4 (अ) औपशमिक सम्यक्त्व - आत्मा के सम्यग्दर्शन गुण का घात करने वाले दर्शन मोहनीय कर्म तथा चार अनन्तानुबन्धी कषाय हैं। इनके उपशम हो जाने पर आत्मा में जो सम्यक्त्व गुण प्रकट होता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व भाव है । यह सम्यग्दर्शन पूर्ण शुद्ध होता है, अत्यन्त निर्मल होता है । यह चारों गति के जीवों को हो सकता है। (आ) औपशमिक चारित्र - आत्मा के सम्यक् चारित्र गुण का घात करने वाली चार अप्रत्याख्यानावरण कषाय, चार प्रत्याख्यानावरण कषाय तथा चार संज्वलन कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) तथा नौ नोकषाय (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद) कुल इक्कीस कषायें हैं, इनका उपशम हो जाने पर अर्थात् उदय न होने से अथवा दब जाने से आत्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, उसे औपशमिक चारित्र कहते हैं। यह चारित्र पूर्ण निर्मल अर्थात् वीतराग होता है तथा मात्र मुनिराजों के होता है । वर्तमान पंचम काल में औपशमिक सम्यक्त्व भाव होना सम्भव है, परन्तु शारीरिक क्षमता का अभाव होने से औपशमिक चारित्र होना सम्भव नहीं है। ये दोनों भाव अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट तक ) से अधिक नहीं रह पाते हैं । 2. क्षायिक भाव - आत्मा के चार अनुजीवी गुणों का घात करने वाले, चार घातिया कर्म हैं। इनका क्षय अर्थात् सम्पूर्ण नाश होने से आत्मा में नौ क्षायिक भाव प्रकट होते हैं, 264 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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