SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं। मिच्छत्तं पि वंजणपज्जाओ अर्थात् मिथ्यात्व भी व्यंजनपर्याय है। 4. कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय - शुद्धपर्याय दो प्रकार की होती हैं - कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय। यहाँ सहजशुद्ध निश्चय से अनादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले और शुद्ध - ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्धअन्तःतत्त्वस्वरूप जो स्वभाव-अनन्तचतुष्टय का स्वरूप, उसके साथ रहनेवाली पूज्य पंचमभाव- परिणति (परमपारिणामिकभाव) है, वही कारणशुद्धपर्याय है – ऐसा अर्थ है। सादिअनन्त, -अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारनय से कथित, केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्त फलरूप अनन्तचतुष्टय के साथ रहनेवाली जो परमोत्कृष्ट क्षायिकभाव की शुद्धपरिणति है, वही कार्यशुद्धपर्याय है। 60 ___5. क्रमभावी पर्याय और सहभावी पर्याय - पर्यायें दो प्रकार की हैं – क्रमभावी और सहभावी। जो पर्याय, एक के बाद एक क्रम से होती हैं, वे क्रमभावी पर्याय कहलाती हैं। क्रमभावी पर्याय के भी दो भेद हैं – क्रियारूप और अक्रियारूप तथा जो द्रव्य में एक साथ रहने वाले गुण हैं, उन्हें सहभावी पर्याय कहते हैं। 6. ऊर्ध्वपर्याय और तिर्यकपर्याय – पर्याय को ऊर्ध्वपर्याय और तिर्यकपर्याय के रूप में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे - तीन काल के अनेक मनुष्यों की अपेक्षा से मनुष्य की जो अनन्त पर्यायें हैं, वे तिर्यकपर्याय कही जाती हैं। यदि एक ही मनुष्य के प्रतिक्षण होनेवाले परिणमन को पर्याय कहें तो वह ऊर्ध्वपर्याय है। 62 ___7. कालापेक्षा से पर्यायों के भेद – काल की अपेक्षा पर्याय के चार भेद हैं - सादि-सान्त, सादि-अनन्त, अनादि-सान्त, अनादि-अनन्त। 63 सादि-सान्त पर्याय - जिस पर्याय का आदि भी हो और अन्त भी, जैसे हर्ष-विषाद आदि। सादि-अनन्त पर्याय - जो पर्याय उत्पन्न तो होती हो पर जिसका अन्त न होता हो; जैसे जीव की सिद्ध पर्याय । अनादि-सान्त पर्याय- जो पर्याय कभी उत्पन्न न हुई हो, अर्थात् अनादि से हो पर जिसका अन्त हो जाता है; जैसे जीव की संसारी पर्याय । अनादि-अनन्त पर्याय - जिस पर्याय का न आदि हो न अन्त; जैसे धर्मास्तिकाय की शुद्धद्रव्यपर्याय और अभव्य जीव की अशुद्धपर्याय। सदुत्पाद और असदुत्पाद द्रव्य में प्रतिसमय जो पर्याय उत्पन्न होती है, उसे उत्पाद कहते हैं; उस उत्पाद के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि वह द्रव्य में पहले से होता है या नवीन उत्पन्न होता है? - इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से दिया जाता है। द्रव्यार्थिकनय से जो द्रव्य में विद्यमान 254 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy