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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुख्यप्रत्यक्षाभास, सांव्यवहारिक-प्रत्यक्षाभास, तर्काभास, अनुमानाभास आदि प्रमाणाभासों की चर्चा की गयी है। निष्कर्ष यह कि प्रमाण-व्यवस्था से पूर्व सभी दर्शनों में प्रायः जड़ और चेतन की स्वतन्त्र वास्तविकता को स्वीकार किया गया है। इनके स्वरूप और पारस्परिक सम्बन्ध की स्थिति सत्य सिद्ध करने के लिए सभी ने कसौटी के रूप में प्रमाण-व्यवस्था से पूर्व विद्या-अविद्या, सम्यक्-मिथ्या आदि को आधार बनाकर अपने मत को स्थापित करने के प्रयत्न किये। बाद में लगभग ईसा की प्रथम शती में प्रायः सभी भारतीय दर्शनों के द्वारा वस्तुतत्त्व की सत्यता सिद्ध करने के लिए मानक के रूप में प्रमाण को मान्य किया। प्रमाण का सूत्रपात एवं प्रमाण-व्यवस्था का ऐतिहासिक काल प्रायः सभी दर्शनों का समान है। सामान्यरूप से प्रमा के साधकतम करण को भी सभी ने प्रमाण माना है, परन्तु करण के विषय में, अन्यदर्शनों से जैनदर्शन की दृष्टि भिन्न है। अन्यदर्शनों में जहाँ ज्ञान के कारणों को प्रमाण एवं ज्ञान को उसका फल कहा है। वहाँ जैनदर्शन में जानने रूप क्रिया के चेतन होने से उसमें साधकतम उसी का गुण-ज्ञान ही हो सकता है, इसलिए इस परम्परा में सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है, जिसमें विभिन्न कालों में जैनाचार्यों द्वारा प्रमाण के स्वरूप में दिए गये अविसंवाद, अपूर्व आदि सभी विशेषण गर्भित हो जाते हैं। प्रमाणमीमांसा पर चिन्तन करने वाले आचार्यों की वह परम्परा उमास्वामी, समन्तभद्र आदि से लेकर 18वीं शती के आचार्य यशोविजय तक अविच्छिन्न रूप से वृद्धिंगत होती रही, जिसमें आप्तमीमांसा आदि के कर्ता स्वामी समन्तभद्र जैनन्याय के जनक कहे गये। वैदिक दर्शनों के लिए प्रमाणमीमांसा हेतु ऋग्वेदादि विशाल साहित्य उपलब्ध होने पर भी प्रमाण का सूत्रपात एवं व्यवस्था करने वाले सभी आचार्यों का काल प्रायः समान है। प्रमाण-विषयक विवेचन के लिए जैन परम्परा में कुन्दकुन्द तक ज्ञान-विवेचन की ठोस आधार-भूमि प्रमाण-विवेचक आचार्यों को प्राप्त हुई, जिसके आधार पर सर्वप्रथम उमास्वामी ने प्रमाण का सूत्रपात किया। तत्पश्चात् समन्तभद्र और सिद्धसेन इन दो आचार्यों ने प्रमाण की सूत्रपात रूपी नींव पर प्रमाण का भव्य प्रासाद निर्मित किया। इनके उत्तरवर्ती अकलंक, विद्यानन्दि आदि आचार्यों ने इन्हीं दोनों आचार्यों का आश्रय लेकर प्रमाणचर्चा को युगानुरूप ढाँचे में ढाला। नय नयों का जैन परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा परस्पर विरोधी विचारों का समाधान प्रस्तुत किया जाता है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक प्रभृति सभी दृष्टिभिन्नताओं का समाधान नय-व्यवस्था में अन्तर्निहित है। जब से जीव को अपनी आन्तरिक चेतना का प्रकृति और शरीर के साथ सम्बन्ध होने का अनुभव 222 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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