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1915, पृ. 175
(2) स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्। -परीक्षामुख, 1.1 6. तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता। ___ लक्षणेन गतार्थत्वाद् व्यर्थमन्यविशेषण।। –तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1.10.77 7. व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम्।। ___ ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते।। -लघीयस्त्रय, 60 8. ग्रहीष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम्। -प्रमाणमीमांसा, 1.1.4 9. अविसंवादकत्वं च निर्णयायत्तम्। तदभावेऽभावात् तद्भावे च भावात्। -लघीयस्त्रयवृत्ति,
60 10. विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्षम्। -विद्यानन्दि, प्रमाणपरीक्षा, वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, 1977, __ पृ. 37 11. प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम्। -प्रमाणमीमांसा, 1.1.14 12. आद्ये परोक्षम्। प्रत्यक्षमन्यत्। -तत्त्वार्थसूत्र, 1.11,12 13. (1) इंदियमणोभवं जं ते संववहारपच्चक्खं। -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 95
(2) तत्र सांव्यवहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्। -लघीयस्त्रयवृत्ति, 4 14. जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं। ___ केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।। –नियमसार, 158 15. मतिः स्मृति:संज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्। –तत्त्वार्थसूत्र, 1.13 16. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, 1977, पृ. 44-45 17. उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः। -परीक्षामुख, 3.7 18. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः। -परीक्षामुख, 3.11 19. (1) यत्र धूमस्तत्राग्निरिति साहचर्यनियमो व्याप्तिः। -केशवमिश्र, तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण ___(2) स्वाभाविकश्च सम्बन्धो व्याप्तिः। -तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण 20. दश अवयवों के नाम दो प्रकार से उल्लिखित हैं। प्रथम प्रकार में-1. प्रतिज्ञा, 2. प्रतिज्ञाविशुद्धि,
3. हेतु, 4. हेतुविशुद्धि, 5. दृष्टान्त, 6. दृष्टान्तविशुद्धि, 7. उपसंहार, 8. उपसंहारविशुद्धि, 9. निगमन एवं, 10. निगमनविशुद्धि का उल्लेख है। द्वितीय प्रकार में-1. प्रतिज्ञा, 2. प्रतिज्ञाविभक्ति, 3. हेतु, 4. हेतुविभक्ति, 5. विपक्ष, 6. विपक्षप्रतिषेध, 7. दृष्टान्त, 8. आशंका, 9. आशंकाप्रतिषेध एवं 10. निगमन का निरूपण है। वात्स्यायन के 'न्यायभाष्य' में भी दश अवयवों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनमें प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन के अतिरिक्त जिज्ञासा, संशय, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन एवं संशयव्युदास की गणना की गयी है। -द्रष्टव्य, न्यायभाष्य 1.1.32
न्याय :: 213
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