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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहले गाय का प्रत्यक्ष किया था, उसकी स्मृति अभी कार्यशील है और वर्तमान में उससे भिन्न भैंस का प्रत्यक्ष हो रहा है, तो 'यह (भैंस) गाय से विलक्षण (भिन्न) है' रूप में वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। पूर्व-दृष्ट पदार्थ से वर्तमान में प्रत्यक्ष हो रहे पदार्थ की दूरी या निकटता का ज्ञान प्रातियौगिक प्रत्यभिज्ञान से होता है, यथा-'यह उससे दूर है' आदि। प्रत्यभिज्ञान के इन समस्त भेदों में प्रमाण का सामान्य लक्षण घटित होता है, इसलिए प्रत्यभिज्ञान के ये सभी भेद प्रमाण हैं।। न्याय, मीमांसा आदि दर्शनों में प्रतिपादित 'उपमान प्रमाण' का अन्तर्भाव जैन दार्शनिकों ने सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में किया है। 'प्रत्यभिज्ञा' अथवा 'प्रत्यभिज्ञान' शब्द का प्रयोग कश्मीर शैवदर्शन में भी हुआ है, किन्तु वहाँ इस शब्द का प्रयोग आत्मसाक्षात्कार या आत्मप्रत्यभिज्ञान के अर्थ में हआ है। 3. तर्क-प्रमाण ___अनुमान-प्रमाण में हेतु एवं साध्य की व्याप्ति का बड़ा महत्त्व है। जैन दार्शनिकों ने तर्क को उस व्याप्ति का ग्राहक ज्ञान मानकर उसे भी प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। जब किसी साध्य का हेतु के द्वारा अनुमान किया जाता है, तो हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति होना अनिवार्य होता है। यदि हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति (अबिनाभाव नियम) नहीं है, तो हेतु से साध्य-अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है। जैसे पर्वत में स्थित 'अग्नि' साध्य है और 'धूम' उसका हेतु है। धूम की अग्नि के साथ व्याप्ति है, क्योंकि जहाँ धूम होता है, वहाँ अग्नि अवश्य होती है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता। धूम और अग्नि की व्याप्ति को जानने के लिए न्याय-दार्शनिकों ने अलौकिक सन्निकर्ष का प्रतिपादन किया है, किन्तु जैन दार्शनिक उस व्याप्ति का ज्ञान तर्क-प्रमाण के द्वारा कर लेते हैं। जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, इस व्याप्ति का ग्रहण तर्क-प्रमाण से शक्य है। आचार्य विद्यानन्दि ने प्रतिपादित किया है कि जितना भी कोई धूम है, वह-सब अग्नि से उत्पन्न होता है और अग्नि के अभाव में धूम की उत्पत्ति नहीं होती है, इस प्रकार सकल देश एवं काल की व्याप्ति से साध्य एवं साधन के सम्बन्ध का जो ऊहापोहात्मक ज्ञान होता है, वह तर्क है तर्क का ही दूसरा नाम ऊह भी है। आचार्य माणिक्यनन्दि ने उपलम्भ एवं अनुपलम्भ से उत्पन्न व्याप्ति-ज्ञान को तर्क कहा है। उपलम्भ का अर्थ है साध्य के होने पर साधन का होना तथा अनुपलम्भ का अर्थ है साध्य के नहीं होने पर साधन का नहीं होना। तर्क-प्रमाण के द्वारा साध्य एवं साधन की त्रैकालिक व्याप्ति का ज्ञान होता है, जो तर्क को प्रमाण माने बिना सम्भव नहीं है। तर्क एक प्रकार का निश्चयात्मक एवं परस्पर विरोधी ज्ञान है, इसलिए वह प्रमाण 206 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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