SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्यायों के होने से उत्पन्न (उत्पाद) और पूर्व पर्यायों के नाश होने से नष्ट (व्यय) होकर भी स्थिर रहता है अर्थात् प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। वाचक उमास्वामी जी ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में सत् की व्याख्या करते हुए कहा है कि - __ उत्पाद्-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् ॥5-30॥ ___ अर्थात् -जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है, वही सत् है। पदार्थ का अपनी जाति को न छोड़कर नयी पर्याय के होने को उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड से घट निर्मित होता है, तब पूर्व पर्याय का नाश होता है, नयी पर्याय का उत्पाद होता है। तथापि मृद् द्रव्य (मिट्टी) का अपना स्वभाव न छोड़ना ही ध्रौव्य है। यहाँ पिण्ड आकार के नष्ट होने पर और घट पर्याय उत्पन्न होने पर भी मिट्टी कायम रहती है। प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों धर्म एक-साथ पाये जाते हैं। यहाँ एक बात विशेष ध्यानाकर्षक यह है कि प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद एवं व्यय साथसाथ होते हुए भी उसमें कुछ अंश ऐसा होता है, जो सर्वथा एक-रूप ही रहता है, अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से पदार्थ नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है। द्रव्य की अपेक्षा से कोई वस्तु न उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। कारण कि द्रव्य भिन्न-भिन्न पर्यायों के उत्पन्न और नाश होने पर भी एक-सा दिखायी देता है। यह प्रत्यभिज्ञा प्रमाण से सिद्ध है। कहा भी है कि - सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः। सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजाति-व्यवस्थानात् ॥ - (स्याद्वाद मंजरी, पृ. 198)। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। फिर भी उनमें सर्वथा भिन्न-पना नहीं होता। पदार्थों में आकृति और जाति से ही नित्यत्व और अनित्यत्व होता है। ___ अर्थात् पूर्वपर्याय का नाश और उत्तर पर्याय का उत्पाद ये दोनों एक ही पदार्थ में घटित होता है। ये तीनों का स्वभाव भिन्न है, तथापि वे सर्वथा भिन्न नहीं हैं । यदि सर्वथा भिन्न माना जाय, तो उसे वस्तु का स्वभाव नहीं माना जाएगा और उसे सर्वथा अभिन्न मानने पर तो पदार्थ एक रूप हो जाने से पदार्थ तीन रूप कैसे हो सकते हैं? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि ये तीनों में कथंचित् भेद होने से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य में कथंचित् भेद है। साथ ही साथ यह भी माना गया है कि ये तीनों भिन्न होते हुए भी निरपेक्ष नहीं हैं। तीनों सापेक्ष हैं । उत्पाद के बिना व्यय और ध्रौव्य, व्यय के बिना उत्पाद और ध्रौव्य एवं ध्रौव्य के बिना उत्पाद-व्यय नहीं पाये जाते हैं। इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-रूप वस्तु का लक्षण स्वीकार करना चाहिए। कहा भी है कि - घट- मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोक-प्रमोद-माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम्॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ।। - (आप्तमीमांसा, 59-60)। अनेकान्तवाद बनाम स्याद्वाद :: 191 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy