SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकान्त प्रो. मुनि महेन्द्र कमार अनेकान्तवाद जैन अध्यात्म की संरचना का मूलभूत तत्त्व है। यह विरोधाभाओं के एकीकरण को सत्य का वास्तविक परिमाण मानता है। इसप्रकार अनेकान्तवाद विरोधाभासी सत्य के रहस्यों को उजागर करने का साधन है। • एक ही वस्तु एक ही समय में एक है और अनेक भी है। एकता व अनेकता एक में ही समाहित है। • समानता और विभिन्नता में कोई विरोधाभास नहीं है क्योंकि यह पूर्ण लक्षण नहीं है। यह आंशिक और सीमित है। अनेकान्तवाद सत्य की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का सिद्धान्त है। अन्य दार्शनिक सत्य के एक पक्ष का पोषण करने के लिए उसके दूसरे पक्ष से दूर निकल जाते हैं। जबकि अनेकान्तवाद सत्य के दोनों पक्षों का समान पोषण करता है। • कोई भी वस्तु पूर्णरूप से न तो सार्वभौमिक है न ही आन्तरिक, न स्थायी है और न अस्थायी बल्कि उसमें दोनों ही लक्षण विद्यमान होते हैं। • तर्क से यह सिद्ध नहीं होता कि वस्तु का अस्तित्व है या नहीं। अनुभव से ही निश्चित होता है कि वस्तु है या नहीं। जैसे गुड़ मीठा होता है। तर्क केवल उसी चीज को क्रमबद्ध व युक्तिसंगत करता है जिसे अनुभव प्रदान करता है। • गुण और पर्याय न तो पूर्णरूप से पदार्थ हो सकते हैं और न इनसे भिन्न हो सकते हैं। बिना किसी एक पहलू के दूसरे का अस्तित्व नहीं हो सकता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये सत्य के तीन लक्षण हैं। ये परिवर्तन की वास्तविकता के स्वाभाविक लक्षण हैं। जब सत्य का तार्किक विश्लेषण किया जाता है तो यही तीन तत्त्व सामने आते हैं। बौद्ध इसे अस्वीकार करके शून्यवादी हो जाते हैं और वेदान्ती इसे स्वीकार करके ब्रह्मवादी हो जाते हैं। विरोधाभास सत्यता के त्रिविध स्वरूप में नहीं, बल्कि इनकी सोच में है। जैन तीनों को एक साथ देखते हैं, जबकि अन्य इन्हें अलग-अलग करके देखते हैं। • उदाहरणार्थ, एक ही दवा एक साथ दवा भी है और जहर भी। किन्तु अज्ञानी अनेकान्त :: 175 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy