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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra की निर्जरा होती है और इन कर्मों का पूर्ण अभाव होने पर मोक्षरूप परिपूर्ण आत्मलाभ होता है, अत: निर्जरा और मोक्ष तत्त्व की भावना करनी चाहिए। इन सभी में मूलतः आत्मतत्त्व की भावना ही प्रधान है।26 नव पदार्थ मीमांसा नव पदार्थ मीमांसा पूर्वोक्त सप्त तत्त्व मीमांसा से कोई बड़ा तात्त्विक अन्तर नहीं रखती है। पूर्वोक्त सप्त-तत्त्व में ही 'पुण्य' और 'पाप' की स्वतन्त्र मीमांसा करने से नव पदार्थ बन जाते हैं । ज्ञातव्य है कि 'आस्रव' और 'बन्ध' तत्त्वों का ही वर्गीकरण 'पुण्य' और 'पाप' के रूप में जैनदर्शन में निम्नानुसार किया गया है। बन्धतत्त्व आस्रवतत्त्व पुण्यास्त्रव www. kobatirth.org पापास्रव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 168 :: जैनधर्म परिचय पुण्यबन्ध पापपदार्थ इसी दृष्टि से 'तत्त्वार्थ सूत्र' में पुण्य-पाप का आस्रव-बन्ध तत्त्वों में अन्तर्भाव मानकर अलग से विवेचन नहीं किया गया है। आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि सर्वार्थसिद्धि टीका में स्पष्ट लिखते हैं 44 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यं 'नव पदार्था' इत्यन्यैरप्युक्तत्वात् । न कर्त्तव्यम् आस्रवबन्धे चान्तर्भावात् । "- (सर्वार्थसिद्धि, 1/4) फिर भी कुन्दकुन्द आदि महान् आचार्यों ने पुण्य-पाप की अलग से मीमांसा की और सप्त तत्त्वों की जगह नव पदार्थों को अपना प्रतिपाद्य बनाया। इसका प्रमुख कारण यही रहा कि सामान्यतः लोग अशुभ कर्मरूप पाप परिणामों व पापकार्यों को तो 'बुरा ' बताकर छोड़ने की प्रेरणा देते हैं; किन्तु शुभ कर्म रूप पुण्य परिणामों एवं पुण्यकार्यों को 'अच्छा' बताकर उन्हें अपनाने को कहते हैं । जब कि जैनदर्शन में इन दोनों का अन्तर्भाव 'आस्रव' और 'बन्ध' तत्त्वों में किया गया है, जो कि हेय तत्त्व हैं; सर्वथा छोड़ने योग्य हैं, कोई भी अपनाने योग्य नहीं हैं। जैनदर्शन की इसी दृष्टि को प्रधानता प्रदान करने के लिए ही सप्त तत्त्व - विवेचन से पृथक् नवपदार्थ - विवेचन प्रस्तुत किया गया है । पापबन्ध सम्पूर्ण जैन परम्परा 'पुण्यभाव' को 'पापभाव' के समान ही मोक्षमार्ग में बाधक बताकर इन्हें समानरूप से त्यागने का निर्देश देती है। कुछ निदर्शन यहाँ प्रस्तुत है For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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