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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कार्य कालद्रव्य के बताये हैं । "वर्तना— परिणाम — क्रिया — परत्वापरत्वे च कालस्य " – (तत्त्वार्थसूत्र 5 / 22 ) इनमें से कालद्रव्य का निश्चयपरक लक्षण 'वर्तना' है और व्यवहार काल के लक्षण परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि हैं । इन छह द्रव्यों के भेद-प्रभेदों की संक्षिप्त मीमांसा इस प्रकार है1. जीवद्रव्य - जीवद्रव्य के मुख्यतः दो भेद माने गये हैंसंसारी और मुक्त | "संसारिणो मुक्ताश्च" – (तत्त्वार्थसूत्र - 2 /10) 44 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनमें से ‘संसारी' जीवों के 'त्रस' और 'स्थावर' - ये दो मूल भेद माने गये हैं'संसारिणस्त्रसस्थावराः " - (तत्त्वार्थसूत्र 2/12 ) इनमें संसारी से अभिप्राय उन जीवों से है, जो कर्मोदय के वशीभूत होकर चार गति चौरासी लाख योनियों में 'संसरण' अर्थात् परिभ्रमण (जन्म-मरण) कर रहे हैं ये संसारी जीव जब मात्र एकेन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय या शरीर मात्र) होते हैं, तब वे स्थावर संज्ञा के पात्र होते हैं। ऐसे जीवों में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-सम्बन्धी जीव आते हैं तथा दो इन्द्रिय (स्पर्शन व रसना) से लेकर पञ्चेन्द्रिय (स्पर्शन - रसनाघ्राण - चक्षुः व श्रोत्र) वाले जीवों को 'त्रस' कहा गया है। इन त्रस जीवों के भी 'मनसहित' (समनस्क या संज्ञी) एवं 'मन - रहित' (अमनस्क या असंज्ञी) ये दो भेद कहे गये हैं। ये भेद मात्र पंचेन्द्रिय वाले त्रसों पर ही लागू होते हैं, क्योंकि 'मन' का सद्भाव उन्हीं में सम्भव है। शेष एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रय तक के जीवों में मन का सद्भाव ही सम्भव नहीं है, अतः वे अमनस्क ही होते हैं। इनके अतिरिक्त संसारी जीवों में एक वर्गीकरण निगोदिया जीवों का भी है, जो सामान्यतः वनस्पतिकाय के अन्तर्गत आते हैं । ये जीव एक श्वास- प्रमाण-काल में अठारह बार जन्म-मरण करते हैं, - ऐसी स्थिति को निगोद कहा गया है। जो जीव अनादिकाल से आज तक कभी ऐसी स्थिति से बाहर नहीं आ पाये हैं, उन्हें नित्यनिगोद के जीव कहा गया तथा जो कभी इस चक्र से बाहर आकर कर्मोदयवश पुनः निगोदअवस्था में लौट आये हैं, वे इतर - निगोद के जीव हैं । इनके साथ-साथ संसारी जीव के जैनदर्शन में दो वर्गीकरण और आते हैं- 'पर्याप्त' और 'अपर्याप्त' । शरीर पर्याप्ति जिनके पूर्ण हो गयी है, वे 'पर्याप्त जीव' हैं, और 'शरीर-पर्याप्ति' पूर्ण हुए बिना ही जिनकी आयु पूर्ण हो जाने से मरण हो जाता है, वे ' अपर्याप्त जीव' हैं । मुक्त जीवों से अभिप्राय उन जीवों से है, जो उपर्युक्त संसार - परिभ्रमण से आत्म तत्त्व - मीमांसा :: 157 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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