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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसमें भाई और कुँवारी बहिन को समान भाग पाने का अधिकार है। यदि दो भाई और एक बहिन है, तो सम्पत्ति तीन समान भागों में बँटेगी। बड़ा भाई छोटी बहिन का, छोटे भाई की भाँति पालन करे; और उचित दान देकर उसका विवाह करे। यदि ऐसी सम्पत्ति बचे। जो बाँटने योग्य न हो, तो उसे बड़ा भाई ले लेवे। यह अनुमान होता है कि बहिन का भाग केवल विवाह एवं गुजारे निमित्त रखा गया है, अन्यथा भाई की उपस्थिति में बहिन का कोई अधिकार नहीं हो सकता। यदि विभक्त होने के पश्चात् कोई भाई मर जाय, तो उसकी सम्पत्ति को उसके भाई और बहिन समान बाँट लें। ऐसा उसी दशा में होगा, जब मृतक ने कोई विधवा या पुत्र न छोड़ा हो। यहाँ भी बहिन का अर्थ कुँवारी बहिन का है, जिसके विवाह और गुजारे का भार पैतृक सम्पत्ति पर पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका यह दायित्व सप्रतिबन्ध दाय-भाग की दशा में मान्य नहीं हो सकता अर्थात् उस सम्पत्ति से लागू नहीं हो सकता, जो चाचा-ताऊ से मिली हो। विधवा भावज का अधिकार- विधवा भावज अपने पति के भाग को पाती है और उसको अपने पति के जीवित भाईयों से अपना भाग पृथक कर लेने का अधिकार है। यदि वह कोई पुत्र गोद लेना चाहे, तो ले सकती है, परन्तु ऐसे भाई की विधवा का, जो पहले ही अलग हो चुका हो, विभाग के समय कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई भाई साधु होकर अथवा संन्यास लेकर चला गया है, तो उसका भाग विभाग के समय उसकी स्त्री पाएगी। इस प्रकार जैन कानून में बँटवारा होने के बाद भी पुन: एक होने का उल्लेख किया गया है। यदि अन्य वर्गों की स्त्रियाँ हैं, तो उनसे सम्पन्न सन्तान के भागों का भी उल्लेख किया गया है। बँटवारा की जो विधि बतायी गयी है, उसके अनुसार कुछ प्रतिष्ठित मनुष्यों के समक्ष अविभाजित सम्पत्ति का मूल्यांकन कर लेना चाहिए और फिर उसके विभाग किये जाने चाहिए, ताकि मूल्यांकन की दृष्टि से सभी को उतना अंश मिल सके, जिसके वे अधिकारी हैं। 5. उत्तराधिकारी- जैन कानून के अनुसार उत्तराधिकार का क्रम निम्न प्रकार है : 1. विधवा, 2. पुत्र, 3. भ्राता, 4. भतीजा, 5. सत पीढ़ियों में सबसे निकट सपिण्ड, 6. पुत्री, 7. पुत्री का पुत्र, 8. निकटवर्ती बन्धु, 9. निकटवर्ती गोत्रज (14 पीढ़ियों तक का), 10. ज्ञात्या, 11. राजा। राजा का कर्तव्य- यदि किसी मनुष्य का उत्तराधिकारी ज्ञात न हो तो राजा को तीन वर्ष पर्यन्त उसकी सम्पत्ति सुरक्षित रखनी चाहिए, और यदि इस बीच में कोई व्यक्ति उसको आकर न माँगे, तो उसे स्वयं ले लेना चाहिए, किन्तु उस द्रव्य को धार्मिक कार्यों में खर्च कर देना चाहिए। इन्द्रनन्दि जिन संहिता में यह नियम ब्राह्मणीय सम्पत्ति के सम्बन्ध में उल्लिखित है, क्योंकि ब्राह्मण की सम्पत्ति राजा ग्रहण नहीं कर सकता है; परन्तु वर्धमान नीति में यह नियम सर्व वर्गों की सम्पत्ति के सम्बन्ध में है कि राजा को कानून :: 149 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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