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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसके रचयिता भट्टारक सोमसेन स्वामी है, जो मूलसंघ की शाखा पुष्कर गच्छ के पट्टाधीश थे। इनका ठीक स्थान विदित नहीं है। 6. श्री आदिपुराण- यह ग्रन्थ भगवत्जिनसेनाचार्यकृत है, जो ईस्वी सन् की नवीं शताब्दी में हुए हैं, वर्तमान काल में इतने ग्रन्थों का पता चला है, जिनमें नीति का मुख्यतः वर्णन है। परन्तु इनमें से किसी में भी सम्पूर्ण कानून का वर्णन नहीं मिलता है, तो भी यदि जो-कुछ अंग उपासकाध्ययन का लोप होने से बच रहा है, वह सब कानून की कुछ आवश्यकीय बातों के लिए यथेष्ट हो सकता है। चाहे उसका भाव समझने में प्रथम कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़े। जब अंग्रेज आये, तो जैनियों ने अपने शास्त्रों को छिपाया व सरकारी न्यायालयों में पेश करने का विरोध किया। एक सीमा तक उनका यह कृत्य उचित था, क्योंकि न्यायालयों में किसी धर्म के भी शास्त्रों का कोई मुख्य सम्मान नहीं होता। कभी-कभी न्यायाधीश और अन्य कर्मचारी प्रायः शास्त्रों के पृष्ठों के पलटने में मुँह का थूक लगाते हैं, जिससे प्रत्येक धार्मिक के हृदय को दुःख होता है; परन्तु इस दुःख का उपाय यह नहीं है कि शास्त्र पेश न किये जावें; क्योंकि प्रत्येक कार्य समय के परिवर्तनों का विचार करते हुए अर्थात् जैन सिद्धान्त की भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से होना चाहिए। जैन कानून के अन्तर्गत बैरिस्टर श्री चम्पतराय जी ने वर्ष 1925 में मुख्यतः निम्नलिखित विषयों को शामिल किया था : 1. दत्तक विधि और पुत्र विभाग 2. विवाह 3. सम्पत्ति 4. उत्तराधिकार 5. स्त्री-धन 6. भरण-पोषण 7. संरक्षण 8. रिवाज प्रमुखतयाः जैन लोगों में यह विशेष-विषय हैं जिन पर प्राचीन शास्त्रों में नीतिगत उल्लेख मिलते हैं। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि जैनों को अपने लिए पृथक् से कानून की क्या आवश्यकता है? तब एक ही उदाहरण से इस बात को स्पष्ट किया जा सकता है कि स्वतन्त्रता से पूर्व की न्यायिक व्यवस्था में अनेक ऐसे लेख मिलते हैं, जहाँ ब्रिटिश न्यायाधीशों ने जैनों के किसी कानून के न होने का उल्लेख किया है और यह कहा है कि जैनों के लिए कानून अलग से होना चाहिए। इसका महत्त्व इस बात से भी लगाया जा सकता है कि हिन्दू लॉ में महिला का स्थान पुत्र के अधीन माना गया है अर्थात् पिता की कानून :: 145 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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